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४७. डॉ. अश्विनीकुमार ने कालूगणी के स्वास्थ्य के बारे में निराशाजनक संकेत दिया, वह किसी प्रकार ईशरचंदजी चौपड़ा तक पहुंच गया। चौपड़ाजी इस बात से बहुत नाराज हुए और बोले-'गुरुदेव के संबंध में ऐसी बे-पते की बात करता है; इसको डॉक्टर किसने बना दिया?' सेठजी के मन का आक्रोश इतना तीव्र हुआ कि उन्होंने डॉक्टर के साथ बोलना बंद कर दिया।
अश्विनीकुमार के मन पर भी उनके इस व्यवहार का असर हुआ। ईशरचंदजी ठिकाने में होते तो वह बाहर खड़ा रहता और उनके प्रति टिप्पणी करता- 'पूजी महाराज के प्रति मेरी भक्ति है, इसलिए मैं यहां आता हूं। मुझे सेठजी से क्या लेना है?'
कुछ समय बाद ही क्रूर काल ने कालूगणी को उठा लिया। डॉक्टर की बात सही प्रमाणित हो गई। अब ईशरचंदजी को अपनी भूल का भान हुआ। उनके मन में डॉ. अश्विनी के प्रति सहज अनुराग पैदा हो गया। उन्होंने उसको हार्दिक स्नेह और सम्मान दिया तथा कई बार अपने घर (गंगाशहर) भी ले गए।
४८. आचार्यश्री कालूगणी का वि. सं. १६६३ का चातुर्मास गंगापुर था। चातुर्मास के लिए आपने भीलवाड़ा से प्रस्थान किया। रास्ते में प्रसंग चला कि गंगापुर छोटा क्षेत्र है, इसलिए आचार्यश्री के साथ मुनि कम रहेंगे। कुछ संतों को अलग भेजना था। कालूगणी का चिंतन मुनि दुलीचंदजी, जंवरीमलजी, नगराजजी आदि मुनि तुलसी के पास पढ़नेवाले संतों को भेजने का था।
मुनि तुलसी को उस बात की जानकारी मिली। उन्होंने सोचा-ये मुनि चार मास तक अलग रहेंगे तो इनके अध्ययन का क्रम टूट जाएगा तथा फिर एक साल तक क्रम नहीं बन सकेगा। इस दृष्टि से वे कालूगणी की सेवा में उपस्थित हुए और बोले-'गुरुदेव! चातुर्मास में मुनि कम संख्या में रखने हैं अतः किसी न किसी को भेजना पड़ेगा। पर इन संतों को भेजने से सालभर का अध्ययन गतरस हो जाएगा। आप कृपा कर अध्ययनशील मुनियों को सेवा का अवसर दिलाएं तो ठीक रहेगा।'
____ मुनि तुलसी ने निवेदन किया और पासा पलट गया। विद्यार्थी साधु रह गए और उनके स्थान पर सदा कालूगणी की सेवा में रहने वाले मुनि सुखलालजी
आदि को भेजने का निश्चय किया गया। ___मुनि सुखलालजी ने बलपूर्वक निवेदन किया कि इस वर्ष तो उन्हें गुरुदेव की सेवा का लाभ दिराना ही पड़ेगा। सदा पास में रहने का सौभाग्य दिराकर अवसर की सेवा से उन्हें वंचित न रखाएं। बहिर्विहार करना ही है तो करते रहेंगे,
परिशिष्ट-१ / २६६