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________________ इधर कालूगणी का चातुर्मासिक प्रवास सुजानगढ़ था, उधर पचपचरा में मुनि रिखिरामजी और लच्छीरामजी अभिमान वश संघ से प्रत्यनीक हो गए। श्रावकों द्वारा स्थिति की जानकारी मिली। कालूगणी ने श्रावकों के माध्यम से ही उनको संघ से बाहर कर दिया। उस स्थिति में जोधपुर के श्रावकों ने संघीय पुस्तकें अपने अधिकार में लेकर साध्वी सोहनांजी को सौपं दीं। संतों ने हाकम के पास शिकायत की। हाकम ने दो टूक जवाब देकर उनको आगाह कर दिया। यह पूरा विवेचन प्रथम गीत में है । दूसरे गीत में कालूगणी के छापर - प्रवास और लाडनूं में समायोजित मर्यादा-महोत्सव का वर्णन है। प्रसंगवश मुनि हेमराजजी (आतमा) का गुणगान किया गया है। तत्त्वज्ञ और आगमों की गंभीर धारणावाले मुनि हेमराजजी ने मनोवैज्ञानिक तरीके से मुनि तुलसी को तत्त्वज्ञान सिखाया था । महोत्सव के अवसर पर मरुधर के लोग पुनः वहां की प्रार्थना करने आए। पूज्य कालूगणी ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली । मरुधर के लोग हर्षविभोर हो उठे । महोत्सव के दिन पश्चिम रात्रि में पूज्य कालूगणी ने साधुओं की गोष्ठी बुलाई। संतों के बीच मुनि दयारामजी, फतेहचन्दजी और चिरंजीलालजी, इन तीनों का एक साथ संघ से संबंध-विच्छेद कर दिया। क्योंकि उनकी आपस में दलबन्दी थी। वे भीतर-ही-भीतर अन्य व्यक्तियों में मनोभेद की स्थिति पैदा करके उन्हें अपना बनाने का प्रयास कर रहे थे। उनका मुख्य आरोप यह था कि तेरापंथ में पक्षपात चलता है। यहां ओसवालों को ही आचार्य बनाया जाता है, जबकि अग्रवालों को कोई स्थान नहीं है । ओसवालों को महान माना जाता है और अग्रवालों को झगड़ालू बताया जाता है । अपने कथन की पुष्टि में उन्होंने उदाहरण के रूप में संघ से बहिष्कृत रिखिरामजी को उपस्थित किया । इतना ही नहीं, उन्होंने भिक्खू और रिक्खू की तुलना करने का दुस्साहस करके हरियाणा के वैरागी जालीराम को बहकाने की चेष्टा की । जालीराम उनके फंदे में नहीं फंसा तो अपनी करनी का फल उन्हीं को भोगना पड़ा । आचार्यश्री ने भिक्खू और रिक्खू की तुलना को मूढतापूर्ण कार्य बताते हुए सुवर्ण के सोना और धत्तूरा, अर्क के सूर्य और आकड़ा, पंचशिखा के सिंह और पांच शिखाओं वाला मनुष्य, मातंग शब्द के इन्द्र का ऐरावत हाथी और चण्डाल तथा लोकनाथ शब्द के लोक का नाथ और लोक है जिसका नाथ, ऐसे द्व्यर्थक शब्दों को प्रस्तुत करके आचार्य भिक्षु की महिमा को उजागर किया है। २८ / कालूयशोविलास-२
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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