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________________ जानेवाले साधु-साध्वियों को बहुत सतर्क रहना पड़ता था। अन्यथा वे भोजन तो क्या, घी के पात्र उलट देते थे। आगमों में श्रावक को साधु-साध्वियों के माता-पिता की उपमा दी गई है। धनराजजी इस उपमा को चरितार्थ करने वाले थे। एकबार उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई, फलस्वरूप उन्हें वृद्धावस्था में असम जाकर व्यापार करना पड़ा। यद्यपि उस समय उनकी कहीं बाहर जाने की इच्छा नहीं थी, पर वे किसी का ऋण भी अपने सिर पर रखना नहीं चाहते थे। इसलिए परिश्रमपूर्वक धंधा कर उन्होंने अर्थार्जन किया और पाई-पाई सबका ऋण उतार दिया। अपनी उज्ज्वल जीवन-यात्रा को अनशनपूर्वक संपन्न कर धनराजजी ने समाज में सुयश अर्जित कर लिया। उन्हें अपनी जीवन-यात्रा के बाह्य और अंतरंग दोनों पक्षों में अपने पुत्र मांगीलालजी और उनकी धर्मपत्नी का पूरा सहयोग रहा। ४२. दानचंदजी चौपड़ा मूलतः डीडवाना के रहने वाले थे। बाद में वे सुजानगढ़ आकर बसे। वहां उनको शहर के मध्यवर्ती उपयुक्त स्थान मिल गया। दानचंदजी की माता वैष्णव थीं, अतः उनमें भी वैष्णव धर्म के संस्कार थे। कालूगणी के संपर्क में आकर वे जैनधर्म के प्रति आकृष्ट हुए। उन्होंने जैन तत्त्वविद्या के संबंध में गहरी चर्चा कर तेरापंथ की श्रद्धा स्वीकार की। दानचंदजी तत्त्वज्ञान के साथ धार्मिक उपासना में भी अभिरुचि रखते थे। इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि वे अपने पुत्र या पुत्री के विवाह में बारात आने पर या बारात में चले जाने पर भी सामायिक करने का क्रम नहीं तोड़ते थे। प्रायः तीन-चार सामायिक करके ही वे आत्मतोष का अनुभव करते थे। आचार्यश्री कालूगणी और आचार्यश्री तुलसी की यात्राओं में भी वे अच्छी सेवा करते थे। ओसवाल समाज के बिरादरी-संघर्ष में स्वदेशी पक्ष से अनुबंधित होने के कारण धार्मिक दृष्टि से भी उन पर काफी दबाव पड़ा; किंतु वे अपने पथ से डिगे नहीं। उन्होंने अपने समय में प्रचुर मात्रा में प्राचीन और दुर्लभ ग्रंथ संगृहीत कर एक बहुत अच्छा पुस्तकालय बना दिया। दानचंदजी अपने जीवन में किसी समय साधारण स्थिति में थे। बाद में उन्होंने बंगाल में व्यवसाय कर काफी संपन्नता प्राप्त कर ली। कहा जाता है कि जब वे दिवंगत हुए तब करोड़ों की संपत्ति छोड़कर गए थे। उस संपत्ति में तीन लाख तोला चांदी, दस हजार तोला सोना, लाखों रुपयों का जवाहरात तथा जमीन-जायदाद थी। ४३. रणथंभोर के शासक अलाउद्दीन खिलजी ने एक व्यक्ति को कठोर दंड २६६ / कालूयशोविलास-२
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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