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________________ उपासना करते। आचार्यश्री कालूगणी और आचार्यश्री तुलसी की उपासना में उन्होंने कोई भी वर्ष खाली नहीं जाने दिया। व्यावसायिक दृष्टि से दिल्ली में प्रवास करने के बाद उनके परिवार ने वहां भी धर्मसंघ संबंधी दायित्व को बराबर निभाया है। ___ आचार्यश्री कालूगणी के समय जब वे उनकी उपासना में रहे तो मुनि तुलसी के काफी निकट संपर्क में आ गए। वे मुनि तुलसी के पांवों की अंगुलियों को सहलाते रहते और अपने अनुभव ज्ञान के आधार पर बताते-यह अंगुली अंगूठे से बड़ी है, यह शुभ है, इसका यह फल होगा आदि...। जीवन के सांध्यकाल में गणेशमलजी की धार्मिक अभिरुचि काफी प्रबल हो गई। वे बार-बार पूछते रहते–'अब मुझे क्या करना है? क्या धर्मजागरणा करनी है?' उनके छोटे भाई मोहनलालजी वर्तमान में अच्छी साधना कर रहे हैं, पर अपने समय में गणेशमलजी फड़दी थे। सांसारिक और धार्मिक, दोनों दृष्टियों से उनकी दक्षता उल्लेखनीय है। ४१. सुजानगढ़-निकासी नवलचंदजी बैद के चार पुत्र थे-छगनमलजी, धनराजजी, जयचंदलालजी (वर्तमान में मुनि) और गणेशमलजी। मुनि जयचंदलालजी 'मूंथाजी महाराज' के नाम से काफी प्रसिद्ध हैं। ___छगनलालजी अपने समय के अच्छे ज्योतिषी माने जाते थे। साधु-साध्वियों के चातुर्मास-प्रवेश की दृष्टि से वे बिना पूछे ही सबके मुहूर्त निकाल देते और जहां-जहां साधु-साध्वियां होते, वहां संवाद पहुंचा देते। छगनमलजी की धार्मिक आस्था इतनी दृढ़ थी कि वे किसी समय और किसी भी विषय में शंका-कांक्षा का नाम ही नहीं जानते थे। धनराजजी अपनी त्याग और तपस्या की विशेष भावना के लिए प्रसिद्ध थे। तपस्या वे प्रायः चौविहार करते थे। उन्होंने अठाई (आठ दिन की तपस्या) भी चौविहार की तथा उसमें चौसठ प्रहरी पौषध किया, ऐसा कहा जाता है। स्वीकृत व्रतों के पालन में वे बहुत पक्के थे। वे कई बार स्वयं कहा करते थे कि उनके जीवन में सब प्रकार के दुर्व्यसन थे। कालूगणी की प्रेरणा और शिक्षा से संकल्प स्वीकार कर उन्होंने अपने-आपको बचा लिया। धनराजजी यात्रा में सेवा बहुत करते थे। उनकी सेवा की पद्धति विलक्षण थी। अपने कई साथियों (झूमरमलजी डोसी, झूमरमलजी चोरड़िया, बालचंदजी बोकड़िया, शिवजीरामजी गाणी, हजारीमलजी बैद आदि) के साथ एक-एक महीने तक बहुत उदारतापूर्वक सेवा करते। ___ साधुओं को दान देने की दृष्टि से वे विलक्षण व्यक्ति थे। उनके घर गोचरी परिशिष्ट-१ / २६५
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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