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________________ ४. भर कलकत्तै धाक, पड़ती ईशर सेठ री। . ____ आज भरै जन साख, पाट-जूट रै काम री।। ५. पूरो थलवट प्रान्त, बीकाणै रो चोखळो। गौरव गिण्यो नितान्त, श्रावक ईशर सेठ रो।। ६. मुश्किल मिलै मिशाल, गुरु-इंगित आराधणै। संघ-भक्ति सुविशाल, 'तुलसी' ईशर सेठ री।। ४०. सुजानगढ़ के प्रसिद्ध श्रावक गणेशमलजी कठौतिया एक विलक्षण व्यक्ति थे। बचपन में ही चेचक के कारण वे आंखों की ज्योति खो बैठे। आंखें जाने के बाद मानो उनका हृदय-पटल खुल गया। वे केवल आंखों से देखते नहीं थे, पर उनकी शेष इंद्रियों की ग्रहणशक्ति बहुत प्रबल थी। उनकी कोई भी प्रवृत्ति ऐसी नहीं थी, जिससे उनकी नेत्रविहीनता का आभास हो सके। अपने सिर पर वे पगड़ी ऐसी बांधते थे, जैसी चक्षुष्मान व्यक्ति भी मुश्किल से बांध सकता हो। उन्हें चलने में केवल अंगुली भर का सहारा अपेक्षित था। उनकी गति देखकर यह अनुमान नहीं होता था कि कोई अपरिचित या नेत्रविहीन व्यक्ति चल रहा है। वे जिस मकान में एक बार घूम लेते, फिर रास्ता बताने की अपेक्षा नहीं होती। __अपनी चक्षु इंद्रिय खोकर गणेशमलजी प्रज्ञाचक्षु बन गए। यही कारण था कि अनेक चक्षुष्मान व्यक्ति उनके पास परामर्श-हेतु आते रहते थे। अपने घर का पूरा हिसाब तथा व्यवसाय में आय-व्यय का पूरा विवरण वे अंगुलियों पर गिनकर बता देते थे। गणेशमलजी चार भाई थे। उनके छोटे भाई पूनमचंदजी, मोहनलालजी और नथमलजी उनके बड़े विनीत थे। तीनों भाई अपने-अपने क्षेत्रों में दक्षता रखने पर भी ज्येष्ठ भ्राता के भक्त बनकर रहे । बराबर के भाइयों में सौहार्द के साथ इतना विनय कम देखने में आता है। भाइयों की तरह इस परिवार की बहनों में भी धार्मिक संस्कारों और पारस्परिक सौहार्द की स्थिति उल्लेखनीय है। धर्मसंघ के प्रति गणेशमलजी की आस्था अटल थी। वि. सं. १६८३ में थली के ओसवाल समाज में जो बिरादरी-संघर्ष उत्पन्न हुआ था, उसमें कठौतिया परिवार स्वदेशी पक्ष में था। उस समय उनको धार्मिक दृष्टि से खींचने का बहुत प्रयत्न किया गया। पर गणेशमलजी, मोहनलालजी आदि ने तनाव के उन क्षणों में भी जिस विवेक, मनोबल और दृढ़धार्मिकता का परिचय दिया; वह एक उदाहरण है। इनके कारण अन्य कई व्यक्ति धर्मपरिर्वतन के लिए उद्यत होकर भी संभल गए। ___ गणेशमलजी अपनी धार्मिक आस्था से प्रेरित होकर प्रतिवर्ष आचार्यों की २६४ / कालूयशोविलास-२
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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