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घोषणा कर दी। विरोधियों का अपना प्रयत्न चालू था, फिर भी निर्विघ्न रूप से दीक्षा-संस्कार का कार्यक्रम संपन्न हुआ।
२६. गंगाशहरनिवासी सेठ ईशरचंदजी चौपड़ा तेरापंथ समाज के वरिष्ठ व्यक्तियों में से थे। उनका व्यक्तित्व, व्यवहार-कौशल और रोब-रबाव सम्पर्क में आनेवाले नए व्यक्ति को भी प्रभावित किए बिना नहीं रहता था। वि. सं. १६६२ की बात है। उदयपुर चातुर्मास में वे आचार्यश्री कालूगणी की उपासना करने गए। वहां दीक्षा-संबंधी बवंडर के संदर्भ में वे उदयपुर-महाराणा भोपालसिंहजी से मिले। उन्होंने दरबार को गिन्नियां भेंट की और खड़े रहे।
उदयपुर राज्य में महाराणा के पास बैठकर बात करने की परंपरा नहीं थी। किंतु महाराणा को जब पता चला कि ये बीकानेर रियासत के प्रमुख सेठ हैं। यहां अपने धर्माचार्य श्री कालूरामजी के दर्शन करने आए हैं तो उन्होंने सेठजी को बैठकर बात करने की इजाजत दे दी।
चौपड़ाजी ने अपने आने का उद्देश्य बताते हुए तेरापंथ संघ की दीक्षा-पद्धति के बारे में विस्तार से बताया। उनकी बात सुन राणाजी बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें निश्चित भाव से कार्यक्रम बनाने का संकेत दिया।
उस समय चौपड़ाजी तत्कालीन दीवान लाला सुखदेवसहायजी से भी मिले और उन्हें भी पूरी जानकारी देकर अपने अनुकूल बना लिया।
२७. 'जेसराज जयचंदलाल' नाम से प्रसिद्ध बैद परिवार में चंपालालजी बैद (राजलदेसर) अपने छह भाइयों में सबसे छोटे भाई थे। वे तत्त्वज्ञ और श्रद्धालु श्रावक थे। अधिक पढ़े-लिखे न होने पर भी अंग्रेजी भाषा इतनी अच्छी बोलते कि सुनने वाले प्रभावित हो जाते। स्वभाव से वे विनोदी थे, किंतु वार्तालाप करने में बहुत कुशल थे। _ वि. सं. १६६२ उदयपुर चातुर्मास में दीक्षा संबंधी जानकारी देने के लिए वे रेजिडेंट साहब कर्नल बीथम से मिले। वहां उनसे तेरापंथ धर्मसंघ और कालूगणी की जानकारी पाकर रेजिडेंट साहब उनके साथ ही कालूगणी के दर्शन करने आ
गए।
उस समय कालूगणी प्रवचन-सभा में विराज रहे थे। चंपालालजी के सामने एक समस्या खड़ी हो गई कि वे रेजिडेंट साहब को कहां बिठाएं? उस समय आचार्यों के सामने किसी व्यक्ति को कुर्सी पर बिठा देना एक नए विवाद को खड़ा करना था। नए अतिथि को नीचे बिठाना भी उन्हें उचित नहीं लगा। आखिर उन्होंने साहस कर रेजिडेंट साहब को प्रवचन-सभा में आचार्यश्री के सामने कुर्सी पर बिठा
परिशिष्ट-१ / २८५