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की अपेक्षा नहीं है । और कभी अवसर आएगा, तब देखूंगा।'
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मुनि का निषेध और नट का प्रबल आग्रह । मुनि किसी भी स्थिति में नट के घर जाने के लिए तैयार नहीं हुए, तब नट व्यंग्यभरी मुस्कान बिखेरता हुआ बोला- 'एक ही घर में चार-चार बार मोदकों की भिक्षा लेने के बाद आपको हमारे घर आने की जरूरत ही क्यों होगी।' शब्द मुनि के हृदय में तीर से लगे । अब वे सकुचाते हुए नट के साथ चलने के लिए तैयार हो गए।
मुनि घर के द्वार पर पहुंचे। वहां दो अप्सराएं उनके स्वागत में खड़ी थीं । वे अतिशय भक्ति-भावना का प्रदर्शन करती हुई उन्हें ऊपर ले गईं। मुनि भिक्षा लेकर शीघ्र ही लौटना चाहते थे और कन्याएं विलंब कर रही थीं। सबसे पहले उन्होंने मुनि की साधना, तपस्या और उपलब्धियों की प्रशंसा की। उसके बाद वे मुनि के सौन्दर्य और तारुण्य को शतगुणित रूप में विश्लेषित करने लगीं । प्रशंसा से अभिभूत मुनि ने सहज भाव से उनकी ओर देखा ।
तीर निशाने पर लग रहा है, यह देखकर कन्याएं आगे बढ़ीं और बोलीं- 'मुनिराज ! इस चिलचिलाती धूप में आप कहां जाएंगे? अभी आहार यहीं करें। फिर विश्राम करके शाम तक पधारना। हमें भी आपके सत्संग का अवसर मिलेगा ।'
अपने प्रति इस अकारण करुणा को देख मुनि ने कन्याओं की ओर स्नेहभरी दृष्टि टिकाकर कहा - 'धूप तो चढ़ रही है, पर मुझे अपने गुरु के पास पहुंचना जरूरी है। उनकी आज्ञा बिना मैं यहां दिनभर रह नहीं सकता।'
'मुनिजी ! आप भी कितने विचित्र हैं! यह अवस्था ! ये कष्ट ! और यह नियंत्रण! हमारी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। हम तो अपने अतिथि को इस समय नहीं जाने देंगे।' उत्तेजक हाव-भाव के साथ कन्याओं की इस बात पर मुनि का मन थोड़ा-सा आकृष्ट हुआ और जयसुंदरी ने आगे बढ़कर मुनि के चरणों का स्पर्श कर लिया।
मुनि के शरीर में बिजली-सी कौंध गई। उनके पांव लड़खड़ाने लगे तो दोनों बहनों ने हाथ का सहारा देकर उनको गिरने से बचाया। मुनि शरीर से तो नहीं गिरे, पर मन से गिर गए और अपने आपको भूल गए ।
नटकन्याओं ने अत्यंत विनय भरा आग्रह किया- 'लंबी प्रतीक्षा के बाद आज आपके चरण यहां टिके हैं। ये कोमल पांव और यह कठोर धरती ! कितने कष्ट सहे हैं आपने ! अब हम आपको यहां से जाने नहीं देंगी। यह घर आपका अपना घर है। आप जैसे रहना चाहें रहें, हम आपकी सेवा में समर्पित हैं।'
आषाढ़ मुनि अब मुनि नहीं रहे। उनका मन नटकन्याओं के साथ रहने
२८२ / कालूयशोविलास-२