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पावै दरस जिकै है पावन, जग जश दाखै जुवो - जुवो । कलजुग बखत आज रो कालू ! हरजन मोटो तुहिज हुवो || ७. मगनीराम जिसा दृढ़मत रा आज्ञाकारी सह हुकम अधीन । सोवन तुलछीरामं सरीखा दिल रा उदधि दयालू दीन ।। ८. विदिया रा सागर विधविध रा, जग मुख कहियो जुवै - जुवै ।। दीठा दरस पाप हुवै दूरा, हरदो निकलंक साफ हुवै । भाषा सरल बोलवो भलपण, संधी वाणी अगत सवाय । कविता भजन एकठा कालू! मैं दीठा थारा घट मांय ।। बाजी ने बगड़ी के सुधरी नाम पर अपनी टिप्पणी करते हुए एक दोहा भी लिखा
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कइ एक लिखता कागदां, बगड़ी शहर विचार | कालू थांरी किरपा भई, सुधरी लिखै संसार ।।
१६. पतझर का समय था । वृक्षों के पत्ते सूखकर नीचे गिर रहे थे । हवाएं सांय-सांय कर चल रही थीं। श्रीकृष्ण अपनी वंशी के साथ अशोकवनिका में पहुंचे । अशोकवाटिका उजड़ी हुई-सी थी। श्रीकृष्ण ने बांसुरी बजाई । सारी वनिका खिल उठी । वृक्ष हरे-भरे हो गए । फूल खिल उठे। कोयल कूजने लगी । सारा वातावरण
बदल गया ।
अशोकवनिका के इस आकस्मिक परिवर्तन की बात कुछ ही समय में सारे शहर में फैल गई। लोगों में कुतूहल जगा । वे खिली हुई वाटिका को देखने गए। एक व्यक्ति ने जिज्ञासा की - 'श्रीकृष्ण की बांसुरी से समूची अशोकवाटिका हरी-भरी हो गई तो उस बांसुरी का क्या हुआ होगा ?"
एक चिंतनशील व्यक्ति ने उत्तर दिया- 'वनिका हरी-भरी हुई । क्योंकि वनिका के वृक्ष ठोस हैं। उनमें ग्रहणशीलता है । ग्रहणशील ही कुछ ग्रहण कर पाते हैं। बांसुरी में पोल है । वह खाली है। उसमें ग्रहणशीलता नहीं है, इसलिए वह हरी-भरी नहीं हो सकती ।'
२०. आचार्यश्री तुलसी का भाषा ज्ञान बहुत समृद्ध था। संस्कृत, हिन्दी और राजस्थानी, इन तीन भाषाओं में उनका साहित्य उपलब्ध है । वे राजस्थान में जन्मे, राजस्थान की माटी में पले-पुसे । इस दृष्टि से राजस्थानी उनकी मातृभाषा थी। राजस्थानी भाषा के अनेक रूप हैं । आचार्यश्री का राजस्थानी साहित्य पढ़ने से ज्ञात होता है कि उस पर कहीं मेवाड़ी बोली का प्रभाव है, कहीं जोधपुरी बोली IT प्रभाव है, कहीं बीकानेरी बोली का प्रभाव है तो कहीं हरियाणवी का भी प्रभाव है।
२७६ / कालूयशोविलास-२