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१६. इस सन्दर्भ में एक प्राचीन संस्कृत श्लोक उपलब्ध हैएके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थं परित्यज्य ये, सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये । तेऽमी मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये, ये निघ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ।। १७. उस समय उदयपुरनिवासी मालमसिंहजी मुरड़िया जोधपुर आए । वे जोधपुरनरेश के भाई अजीतसिंहजी से मिलने के लिए उनके बंगले पर गए। उन्होंने मुरड़ियाजी से कहा - ' आज जोधपुर में दीक्षा का एक कार्यक्रम था । अभी-अभी जयपुरनरेश मानसिंहजी, जोधपुरनरेश उम्मेदसिंहजी, नरेश के साले साहब और मैं, हवाई यान में बैठकर दीक्षा - मंडप का दृश्य देखकर आए हैं। बड़ा भव्य और आकर्षक कार्यक्रम था ।
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मालमसिंहजी वहां से आचार्यश्री कालूगणी के दर्शन करने गए। वहां इस संबंध में किसी को जानकारी नहीं थी । क्योंकि जोधपुरनरेश ने इस संबंध में किसी को कोई सूचना नहीं दी थी। जयपुर नरेश उनके आतिथ्य पर आए थे। जब उन्हें पता चला कि जोधपुरनरेश कोई कार्यक्रम देखने जा रहे हैं तो वे भी साथ चलने के लिए तैयार हो गए। मालमसिंहजी ने प्रवचन के समय यह बात सबको सुनाई । लोगों को आश्चर्य हुआ । कालूगणी का असाधारण व्यक्तित्व कितने ही विशिष्ट व्यक्तियों को अपनी ओर आकृष्ट कर उनमें तेरापंथ धर्मसंघ के प्रति आकर्षण और अभिरुचि उत्पन्न कर देता था ।
१८. आचार्यश्री कालूगणी जब आंगदूस पधारे तब वहां के बारठ लिखमीदानजी ने एक गीत सुनाया, वह इस प्रकार है
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एकाणु बरस समत उगणीसै, भाग आछ अंछिया हुई । मांहरै गाम हुवा पगमंडण हुई महर धर पवित्र हुई ।। आया सतियां अगम अमावस, संत पधारण बात सुणी । मोटी कृपा करी बुध मोटम, धरम कवच मोटका धणी ।। आंगौदवस चेत सुद एकम, बिजनस हो जिण दिन बुधवार । आय दरस दियो दिन ऊगां, सामी धिन धिन जनम सुधार ।। सर तुझ थया तपसाधन ! पकड़ै नहिं जमराज पलो । संता तारण काजसुधारण, भवतारण तूं संत भलो ।। समरथ हुवो डाल गणसामी, तिकण पाट तप भलो तपै । यूं समरथ जनमत दृढ़ थारो, जग सारो जयकार जपै ।।
परिशिष्ट-१ / २७५