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श्रावकधर्म की विशेष पुष्टि हेतु आनंद ने उपर्युक्त अभिग्रह स्वीकार किया । जीवनभर धर्मजागरण में जागरूक रहकर उसने अंतिम समय में अनशनपूर्वक मृत्यु का वरण किया।
१५. पाली के विजयचंदजी पटवा आचार्य श्री भिक्षु के प्रमुख श्रावकों में एक थे। उन्होंने गहराई से तत्त्व को समझा और स्वामीजी के पास सम्यक्त्व दीक्षा स्वीकार की । स्वामीजी के प्रति उनके मन में गहरी श्रद्धा थी ।
चन्द्रभाणजी, तिलोकचंदजी आदि टालोकर एक बार पाली आए। वहां उन्होंने धर्मसंघ, स्वामीजी और साधु-साध्वियों का अवर्णवाद बोलकर श्रावकों की श्रद्धा डिगाने का प्रयत्न किया । विजयचन्दजी पटवा वहां के प्रमुख श्रावक थे । उनको भी अपने जाल में फंसाने का प्रयत्न किया गया, पर सफलता नहीं मिली ।
कुछ समय बाद स्वामीजी पाली पधारे। वहां वे विजयचंदजी के मकान में रहे। कुछ मुनियों ने स्वामीजी से निवेदन किया- 'यहां टालोकरों ने काफी बहकावट की है। पटवाजी पर भी उसका कोई असर है या नहीं, आपको ध्यान देना चाहिए।' स्वामीजी बोले- 'अब हम यहीं हैं, इनको संभाल लेंगे ।'
दिन पर दिन बीतते गए। एक महीना पूरा होने जा रहा था। स्वामीजी को अब वहां से प्रस्थान करना था और वे प्रस्थान से पूर्व संतों को पटवाजी की दृढ़ आस्था से परिचित करना चाहते थे। एक दिन आचार्य भिक्षु ने पूछा- 'पटवाजी ! यहां तिलोकचन्दजी, चंद्रभाणजी आए थे?'
पटवाजी - 'हां, गुरुदेव ! आए थे।'
स्वामीजी - 'उन्होंने धर्मसंघ और हमारे विरोध में काफी बातें कहीं होंगी?'
पटवाजी - 'हां, महाराज! कही थीं?'
स्वामीजी - 'क्या तुम्हारे सामने भी कही थीं?' पटवाजी-‘हां, गुरुदेव !’
स्वामीजी - 'तुमने कभी कुछ पूछा तो नहीं ।'
पटवाजी-‘महाराज! मैं क्या पूछूं? मुझे पूरा विश्वास है कि आप ऐसे आत्मार्थी हैं कि अपने साधुत्व में जान-बूझकर दोष लगा नहीं सकते तथा टालोकर झूठ बोले बिना और निंदा किए बिना नहीं रह सकते। जो व्यक्ति अनंत सिद्धों की साक्षी से किए हुए त्यागों को तोड़ देता है, उसकी बात पर विश्वास कैसा ?' विजयचंदजी की बात सुन स्वामीजी ने संतों को बुलाकर कहा - 'लगता है कि पटवाजी क्षायक सम्यक्त्व के धनी हैं । धर्म और धर्मसंघ प्रति इनकी आस्था
सबके लिए अनुकरणीय है।
२७४ / कालूयशोविलास-२