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________________ वह सारा ऐश्वर्य चिंतामणि रत्न के द्वारा उपलब्ध था। रत्न गया और ऐश्वर्य समाप्त। प्राप्त चिंतामणि रत्न को भी भाग्यहीन व्यक्ति सुरक्षित नहीं रख सकता। ४. एक विद्याधर आकाश-मार्ग से यात्रा कर रहा था। रास्ते में उसे अतिसार की बीमारी हुई। स्वास्थ्य-लाभ के लिए वह नीचे उतरा। कई व्यक्ति उधर से गजरे, पर किसी ने विद्याधर की ओर ध्यान नहीं दिया। आखिर एक गरीब व्यक्ति ने उसको देखा। वह उसे अपनी झोंपड़ी में ले गया और परिचर्या में जुट गया। विद्याधर बेहोश हो चुका था। जब उसे होश आया तो उसने देखा-एक अपरिचित व्यक्ति अग्लान-भाव से उसकी सेवा में संलग्न है। विद्याधर अतिसार और भूख के कारण व्यथित हो रहा था। उसने अपना झोला खोला। उसमें से एक कलश निकाला। उसे पट्ट पर रखकर पूजा की और घी के साथ अच्छी तरह पकी हुई खिचड़ी की मांग की। मांग के साथ ही घी-खिचड़ी तैयार। विद्याधर ने थोड़ी खिचड़ी खाई और अपने उपकारी व्यक्ति को भरपेट खिलाई। विद्याधर उस अपरिचित व्यक्ति की सेवाभावना पर बहुत प्रसन्न था। वह बोला-'भाई! तुमने मेरी इतनी सेवा की है, कोई वरदान मांग लो। गरीब व्यक्ति उस कामकलश के जादू को देखकर उसके प्रति आकृष्ट हो रहा था। जब उसे वरदान मांगने को कहा गया तो उसने उसी को मांग लिया। विद्याधर ने उसे समझाया कि मैं तुम्हे ऐसा मंत्र सिखा दूंगा, जिससे ऐसे घड़े बनाए जा सकते हैं। लेकिन वह नहीं माना। आखिर विद्याधर उसे काम-कलश देकर अपनी मंजिल की ओर चल पड़ा। विद्याधर को विदा कर उस व्यक्ति ने कामकलश की पूजा की और अपनी मांगें प्रस्तुत की। मांग के अनुरूप उसे भोजन, मकान, ऐश्वर्य सब कुछ मिला। गरिष्ठ भोजन ने उसको उन्मत्त बनाया। अब उसने शराब की मांग की। शराब पीने के बाद नर्तकी का नृत्य देखने की इच्छा हुई। नर्तकी नाचने लगी, पर नृत्य उसे पसंद नहीं आया। वह बोला-'तुम ठहरो। मैं नाचता हूं।' कामकलश को सिर पर रखकर उसने नृत्य करना शुरू किया। हाथ का आलंबन छूटते ही कलश नीचे गिर पड़ा और चूर-चूर हो गया। कलश फूटा और सारी लीला समाप्त। वह गरीब आदमी अपनी उसी छोटी-सी झोंपड़ी के अभावग्रस्त परिवेश में खड़ा था। अब अनुताप के अतिरिक्त उसके पास बचा ही क्या था? ऐसे अपूर्व कामकलश को वह दुर्भागी व्यक्ति कैसे रख सकता था। ५. मुनि हेमराजजी हमारे धर्मसंघ के विशिष्ट मुनियों में एक थे। उनका २६८ / कालूयशोविलास-२
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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