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________________ मन्दिर स्तोत्र के पद लेकर समस्यापूर्ति की। मुनिश्री तुलसी ने भी कल्याण- मन्दिर को आधार बनाकर 'कालूकल्याणमन्दिरम्' का सृजन किया। मुनि धनराजजी और मुनि चंदनमलजी ने भी स्तोत्र लिखे। मुनि सोहनलालजी ने दूसरी बार समस्यापूर्ति के लिए कल्याणमन्दिर का आधार लिया। इस प्रकार सहज रूप से पूज्य कालूगणी के संबंध में संस्कृत भाषा में स्तोत्र साहित्य तैयार हो गया। मुनि तुलसी ने जब अपना 'कालूकल्याणमन्दिर' स्तोत्र आचार्यश्री कालूगणी को दिखाया तो वे बहुत प्रसन्न हुए और संवत्सरी के दिन परिषद में उसे सुनकर मुनि तुलसी को प्रोत्साहित किया। ३. एक ब्राह्मण देह-चिंता से निवृत्त होकर नदी के तट पर आकर बैठा। लोटा साफ करने के लिए उसे मिट्टी काम में लेनी थी। तट की मिट्टी को खोदते समय उसके हाथ में कुछ कंकर आए। एक कंकर काफी चमकीला और आकर्षक था। उसको ब्राह्मण ने अपनी जेब में डाल लिया। वह तट पर बैठा था। ठंडी हवा चल रही थी। चारों ओर चहल-पहल थी। ब्राह्मण ने सोचा-इतना अच्छा वातावरण इस स्थान को छोड़कर कहां मिल सकता है। घर जाने की इच्छा ही नहीं होती। पर करूं ही क्या? पेट भूखा है। क्या ही अच्छा हो, यहां खीर-पूरी का भोजन मिल जाए। सोचने भर की देर थी, खीर और पूरियों से सजा थाल सामने आ गया। ब्राह्मण आश्चर्य में खो गया। मनोनुकूल भोजन पाकर उसने चिंतन में समय लगाना उचित नहीं समझा। भरपेट भोजन किया। ऐसी स्वादिष्ट खीर उसने पहले कभी नहीं खाई थी। खाने के बाद आलस्य सताने लगा। सोने की इच्छा हुई और पलंग तैयार। प्रातःकाल की ठंडी हवा अब तेज धूप में परिणत हो गई। ब्राह्मण को भी धूप सताने लगी। उसने मकान का स्वप्न देखा। दूसरे ही क्षण आधुनिक साज-सज्जा से युक्त मकान तैयार। ब्राह्मण ने जो-कुछ सोचा, वही उसके सामने उपस्थित। एक ओर विस्मय, दूसरी ओर भगवान की कृपा का आभास । वह निश्चित होकर सो गया। ब्राह्मण ने पलकें मूंदी कि सामने एक कौआ आकर बैठ गया और कांव-कांव करने लगा। उसने कौए को उड़ाने का प्रयास किया, पर वह उड़ा नहीं। मेरे भाग्य के साथ टक्कर लेने यह कहां से आ धमका? इस चिंतन के साथ उसने जेब में हाथ डाला और वह कंकर निकालकर कौवे की ओर फेंका। कौआ उड़ा और उसके साथ ही उस समूचे ऐश्वर्य का लोप हो गया। इन्द्रजाल या स्वप्न-माया की तरह अपने ऐश्वर्य को खोकर वह ठगा-सा रह गया। परिशिष्ट-१ / २६७
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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