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१८. कुण जाणै क्यूं वितथ बतंगड़ फेल्यो पुर-पुर में अणचाह्यो।
बड़ी मुसीबत में है माजी जीवन को आधार लुटायो।। १६. कोइ कहै सुद सातम स्यूं ही छोड़ दियो अन दुख री दाधी।
कोइ कहै सति जावजीव रो संथारो पचख्यो संवादी।। २०. नहिं पचख्यो तो आजकाल में अबै पचखसी नहीं हिचकसी।
शासनछत्र सुपुत्र-विरह में आखिर कब तक धाको धिकसी? २१. सारां नै उपदेश सुणाती छाती राखो भोळा भाई!
जोग विजोग शुभाशुभ-जोगे गई वस्तु फिर कब कुण पाई।। २२. किण नै रोवै हसै जु किण नै मूढ़ करै क्यूं थारा म्हारा।।
गया गया फिर नहीं आण का रह्या रह्या सब जावणहारा ।। २३. इण नीती में ऊमर बीती कोरी रीती सीख सुणातां।
अब घरबीती चढ़ी कसौटी बड़ी-बड़ी माजी री बातां।। २४. यूं आशंका कर-कर आया बीदासर में लोक हजारां। __माजी बेराजी या राजी देखण लागी भीड़ बजारां ।। २५. मनसा वाचा और कर्मणा माजी दै जवाब इकधारा।
सीहण को-सो रूप अबीहण निरखत चित्रित है जन सारा ।। २६. प्राण-पियारो हार हिया रो कालू-सो सुत स्वर्ग सिधायो।
विरह-व्यथाकुल व्याकुल भाया! मैं म्हारै मन नै समझायो।। २७. कालू-पटधर श्री तुलसी रो हुलसी-हुलसी नाम समरस्यूं।
मोह दाव में झुलसी दुनिया मैं निर्मोही रो पथ वरस्यूं।। २८. तुलसी ही कालू श्री डालू माणक मघ जयजश है म्हारै।
नहिं कोई ऊणायत गण में क्यूं दिलड़ो कायरता धारै।। २६. जब लग जीस्यूं तब लग शांत सुधारस प्याला भर-भर पीयूं।
संयम समता री सूई स्यूं फाट्योड़ा अंतर-पट सींस्यूं ।। ३०. शांत भाव स्यूं तप-जप करती जिनशासण री शोभ बढ़ास्यूं।
अंत समे अंतिम अनशन कर अंतिम आराधक पद पास्यूं।। ३१. छोगां री आ छटा छबीली लख-लख लोचन लोक लुभाया।
कानां स्यूं तो कुछ ही सुणता आंख्यां देखी अद्भुत माया।।
१. उक्त पद्य कवि सम्मन के निम्नलिखित पद्य का भावानुवाद है
सम्मन रोवै काहि को, हसे जु कोण विचार। गए सो आवण के नहीं, रहे सो जावणहार ।।
उ.६, ढा.१६ / २२६