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हो म्हारा शिरसेहरा! क्षण इक निरुपम नाज जो,
बीजै क्षण ही विरह-व्यथाकुल आंतड़ी रे लोय।। २२. हो गुरु गुणगेहरा! तय्यासी री साल जो,
चंदेरी-म्हामोच्छब मुझ तनु ज्यर चढ़ी रे लोय। हो म्हारा शिरसेहरा! आप करी संभाळ जो,
कोटि प्रकारे दिल स्यूं नहिं जावै कढ़ी रे लोय'।। २३. हो गुरु गुणगेहरा! कांटे-बीन्ध्यो पाय जो',
छापर, बीदासर-नोहरे उदर-व्यथा रे लोय। हो म्हारा शिरसेहरा! बो यात्सल्य अथाय जो,
आप दिखायो क्यूंकर कहिवाए कथा रे लोय।। २४. हो गुरु गुणगेहरा! इठ्यासी री बात जो,
शहर लाडणूं कारण-जोगे मैं रो रे लोय। हो म्हारा शिरसेहरा! बो अवसर अवदात जो,
सुगुरु-अनुग्रह नहिं जावै मुझ मुख कयो रे लोय ।। २५. हो गुरु गुणगेहरा! निज मघया री रीत जो,
शहर ईड़यै निशि प्रवचन-समये करी रे लोय। हो म्हारा शिरसेहरा! प्रगटी प्रीत पुनीत जो,
पुनि-पुनि सुमरू फिर कद मिलसी बा घड़ी रे लोय।। २६. हो गुरु गुणगेहरा! 'बई गुहे' विख्यात जो,
सीख-सोरठियो सामन्त्रण संभळायियो रे लोय'। हो म्हारा शिरसेहरा! जद-तद रात-बिरात जो,
याद किया ही गुरुवर भर आये हियो रे लोय।। २७. हो गुरु गुणगेहरा! अध्यापन हित आप जो,
जो श्रम दियस-रात्र अति मात्र समाचर्यो रे लोय ।
१. देखें प. १सं. ६० २. देखें प. १ सं. ६१ ३. देखें प. १ सं. ६२ ४. देखें प. १ सं. ६३ ५. देखें प. १ सं. ६४ ६. देखें उल्लास ४ गीतिका ६ गाथा १६, २० और २२ के पादटिप्पण। ७. देखें प. १ सं. ६५
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उ.६, ढा.१३ / २१६