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म्हारी मनःस्थिती कुण क्यूंकर थामै रे, तुलसी! २१. कहणी कुछ आवै नहीं,
कह्यां बिना पिण रह्यो न जावै म्हां स्यूं रे, तुलसी! खिण-खिण भर ज्यावै हियो, अकुलावै बरसावै आंख्यां आंसू रे, तुलसी!
घणो असुहावणो रे, सगरु-विरह रो बाण, घणो अलखावणो रे, सुगुरु-विरह रो बाण। दहल उठै दिल देखतां रे, करड़ी विरह-कृपाण।।
२२. साहस सकल बटोर नै रे, सिर गुरु-चरणां ठाण।
मैं तब बोल्यो बिलखतो रे, अंतर-व्यथा मिटाण।। २३. आकस्मिक व्रण-वेदना रे, कर धर तीर-कमाण।
आ प्रगटी इण अंग में रे, विधि जड़ बण्यो अजाण ।। २४. चूर-चूर चितड़ो हुवै रे, क्यूंकर करूं बखाण। - सुणूं निराशा स्यूं भरी रे, जब श्रीमुख री वाण।। २५. है लाखां री कामना रे, हुवै कोटि कल्याण।
स्वास्थ्य वरो शासण करो रे, हरो जगत-तम भाण! . २६. बहो भार ओ आपरो रे, आप स्वयं भुज-पाण।
अंतर सूरज दीवलो रे, नीरधि और निवाण।। २७. कदे न कीन्ही कल्पना रे, मैं मन तीरथ-त्राण!
चढ़णो पड़सी आज ही रे, (इण) गुरुतर पद-खरसाण।। २८. अब लग तो अध्ययन में रे, एक लगन मन आण।
राखी निश-दिन व्यस्तता रे, करी न गहरी छाण।। २६. पांच मिनट भी पास में रे, बेठ्यो दियो उठाण।
बखत गमा मत कीमती रे, सीख चितार सुजाण! ३०. भावी सपना देखतो रे, रह्यो मोद मन माण। ___ पिछताणो क्यूं नां पड़े रे, जो चूकै ओसाण।। ३१. अब प्रसाद मुझ पर करो रे, चाकर पद-रज जाण।
द्यो चरणां री चाकरी रे, अवसर रो अहसाण।।
१. लय : हरी गुण गायले रे १६४ / कालूयशोविलास-२