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१६. करता वंदन मगन नै, सदा ज्येष्ठ पर्याय ।
अब जोड़ी स्यूं उतरणो रुक्यो स्वयं निरुपाय ।। १७. अंतिम दिन तक एक पग, जोड़ी स्यूं उत्तार । करी वंदना मगन नै, ओ आदर्श उदार । ।
'बात सुणो अति विरह री ।
१८. औषध रै उपचार रो, अब लों असर न प्रसर विशेष क । खिन्न हृदय कविरत्नजी', बोलै ले सद्गुरु - आदेश क ।। १८. मैं उद्योग कियो घणो, उलट-पलट औषध - अनुपान क । बेमाने सारो रह्यो, ओ म्हांरो दौर्भाग्य - निदान क ।। २०. वैद्य-विफलता स्यूं हुवै, जनता में पिण अब आक्रोश क । अन्वेषण करणो चहै, प्रवर भिषगवर तरुण सजोश क ।। २१. मैं तो हाजर हूं जिस्यो, जद- तद भी गुरु पद - अनुरक्त क । दूजै नै पिण देखणी, आग्रह -विग्रह रो नहिं वक्त क ।। कालूगणी उवाच
२२. पंडितजी ! क्यूं पांतऱ्या, क्यूं कमजोरी आणी आज क? क्यूं विरम्या उपचार स्यूं, सुण जड़ जनता री आवाज क? २३. नियति-हाथ नीरोगता, है उद्यम ही अपणो काम क । असफलता अरु सफलता, चिंता करणी है बेकाम क ।। २४. म्हांरै हृदय प्रसन्नता, थांरी औषध स्यूं कविराज ! क ।
अड़क - वैद्य कोई मिलै, तो उपजावै दुगुणी दाझ क ।। २५. पंडितजी प्रमुदितमना, देखी गुरु-दिल दृढ़ विश्वास क । पेली ज्यूं चालू रख्यो, सहजतया औषध आयास क ।।
दोहा
२६. गुरु-भगिनी मासी-सुता, कानकंवर बरसां स्यूं रहतो व्यथित, उदरग्रंथि
१. लय : संभव साहिब समरिए २. रघुनंदनजी
गुणपात्र । स्यूं गात्र।।
उ.६, ढा.४ / १८५