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२१. सुमन-प्रसून खिलै पचरंगा, समतुल-सी गर्मी सर्दी,
आम्र-मंजरी खा कोयलियां कूज करती हमदर्दी। ओ आयो मर्यादा-मोच्छब अथवा वैभव ऋतुराजा रो।।
ग्रीष्म ऋतु
२२. स्खलना-पंक प्रशोषण ज्येष्ठ मास-सो सद्गुरु-सूर्य तपै,
कड़ी सारणा लू-फटकारां, संचित सारो पाप खपै।
कटै रोग-कीटाणूं ज्यूं-त्यूं, मोच्छब है क निदाघ करारो।। २३. ज्ञाताज्ञात कलुष रो कचरो, आतप-अंधड़ स्यूं उजलै,
ले नूतन निखार जीवन-धरती में अभिनव ज्योत जले। केवल गुरु-वच-वृष्टि प्रतीक्षा, शिक्षा-रूप सुधा संचारो।।
'बड़नगर महोत्सव मेळो लाल, मालवी।
२४. है कनक भवन बड़भागी, सौधर्म-सुधर्मा सागी।
लोकां री जो लय लागी, झिगमगती ज्योती जागी।। २५. मर्यादा-पत्र पढ़ायो, जाणक सिर छत्र धरायो।
शासण रो गौरव गायो, सुणतां सीनो फूलायो' ।। २६. घोषित कीन्हा चौमासा, प्यासां री मिटी पिपासा।
जो आया धर-धर आशा, मुंहमांग्या पड़ग्या पासा।। २७. स्मृति बंयासी बरसां री, आ अभिनव रचना सारी।
पंचम उल्लासे प्यारी, नवमी शुभ ढाळ उचारी।।
१. लय : सुखपाल सिंहासण २. देखें प. १ सं. ३३ ३. वि. सं. १६१० की साल मालवा क्षेत्र में जयाचार्य का पदार्पण हुआ था। उसके बाद
वि. सं. १६६२ में आचार्यश्री कालूगणी का आगमन हुआ तो बंयासी वर्ष पहले की स्मृतियां ताजी हो गईं।
उ.५, ढा.६ / १४६