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शरद ऋतु १४. निरखी म्है कृशकाय निझरण्यां, साधु-श्रमण्यां विरह भर्यो,
स्वच्छ हृदय-नभ शारद-शशधर, शांत-वदन गुरु दर्श कऱ्यां।
नीरव अरु निष्पंद वृत्त स्थिर-चित्त शरद ऋतु रो भणकारो।। १५. बण्या प्रवासी श्रमण-सितच्छद, गुरुकुल-मानस मौज करै,
परम कारुणिक कालू-वदन-सूक्त-मुक्ताफल भोज वरै। नहिं सरदी-गरमी रो अनुभव, साक्षात शरद वरद बरतारो।।
हेमन्त ऋतु १६. सकल शीतलीभूत शुभंकर, वातावरण विराट बणै,
दृष्टि-दृष्टि में शब्द-सृष्टि में, उष्मा स्यूं नहिं तीर तणै।
ठंडी नजर नाथ री निरखत, उतरै सो गरमी रो पारो।। १७. पोष-माघ रो सहज समय है, ठंडी-ठंडी ब्हाळ चलै,
हाथां-पैरां फटै बिवाई, धरती ठंडी हेम गलै। मुश्किल पडिलेहण हिम ऋतु में, बढे भार अति उपकरणां रो।।
शिशिर ऋतु . १८. अगर वर्ष भर अति-व्यतिक्रम, प्रतिक्रमण गुरु-चरणां में,
हक नाहक घातक पातक रो, पतझर सद्गुरु-शरणां में।
देख्यो गंगा-स्नान गजब रो, मोच्छब है क शिशिर सुविचारो।। १६. तूफानी दोरा संतां रा, जाणक अब फागण बाजै,
समुचित परिवर्तित सिंघाड़ा, दूर-दूर यात्रा साझै। मिलन और बिछुड़न की बेळा, मर्यादोत्सव स्रोत सुधा रो।।
बसंत ऋतु २०. नयो खून निर्बहै नसां में, बहै नई शम-रस-धारा,
तरुण तेज अरु तत्त्व-ताजगी, पावै नब जीवन सारा। विटप-विटप में सरस वासना, अंग-अंग में नयो उनारो।।
१४८ / कालूयशोविलास-२