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________________ संपादकीय आचार्यश्री कालू अपने बचपन में एक निर्मल निर्झर के रूप में छोटे-से देहात में बह रहे थे। आचार्यश्री मघवा का ध्यान उस ओर केंद्रित हुआ। वे उसकी निर्मलता एवं गतिशीलता से प्रभावित हुए और उसे तेरापंथ की सुरम्य वाटिका में बहा लाए। उस निर्झर के उन्मुक्त बहाव एवं मधुर निनाद ने उसके आसपास चलनेवालों का मन मोह लिया और एक दिन वह उस वाटिका का प्राण बन गया। निर्बाध गति से प्रवहमान उस जल-प्रपात से तेरापंथ-वाटिका का सौंदर्य उत्तरोत्तर निखरने लगा। बीच-बीच में पतझर के हल्के-भारी झोंके भी आए, किंतु वे स्वयं हतप्रभ होकर अस्तित्व-विहीन हो गए। अनेक आवर्तों-प्रत्यावर्तों के मध्य बहने वाले उस निर्झर की स्थिर चेतना को संगीत की थिरकती लहरों पर अतियात्रित करने का काम किया है युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी ने। आचार्यश्री तुलसी सृजन की ऊर्जा के सक्षम केंद्र हैं। उनकी प्रतिभा में कथ्य के नए उन्मेष और नव शिल्पन की कला पुरोगमन कर रही है। उनका अनुभव-शिल्प शब्दों की तरंगों पर मीनाकारी करता हुआ परिलक्षित होता है। अपनी कल्पनाशील मनीषा के पारदर्शी वातायन पर वे जिस भाव-बोध से साक्षात्कार करते हैं, उसे सजीव अभिव्यक्ति दे देते हैं। छिटपुट रचना-बिंदुओं का संख्यांकन न किया जाए, तो उनकी सृजन-शृंखला में पहली कड़ी है 'कालूयशोविलास' । इस प्रथम कृति में भी अनुभव-शिल्प को जिस प्रौढ़ता से निखार मिला है, वह विलक्षण है। शब्द-शिल्प को सतर्कतापूर्वक गढ़ने का प्रयास न होने पर भी इसके शब्द-विन्यास में आभिजात्य सौंदर्य का उभार है। साहित्य जगत की नई विधाओं से अनुबंधित न होने पर भी इससे आविर्भूत नव्यता एक पराकाष्ठा तक पहुंच रही है। सूर्य-रश्मियों की भांति उज्ज्वल और गतिशील इस काव्य-चेतना में एक अनिर्वार आकर्षण है। इस अखंड और समग्र अस्तित्व को आकार देने वाले जीवन-वृत्त का सृजन अंतर्लीनता के दुर्लभ क्षणों में ही संभव है। १२ / कालूयशोविलास-२
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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