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________________ 'कालूयशोविलास' के सृजन-काल में आचार्यश्री तुलसी अपनी दैहिक चेतना को सर्वथा विस्मृत कर आचार्यश्री कालू के व्यक्तित्व में खो गए । यही कारण है कि आचार्य - पद के विविध आयामी दायित्व का निर्वहन करते हुए भी उन्होंने चार साल की छोटी-सी अवधि में साहित्य के क्षितिज पर एक अभिनव कृति का अवतरण कर दिया । श्रेष्ठ कार्यों में अनाहूत बाधा की उपस्थिति स्वाभाविक है। आचार्यश्री की सृजनशीलता में भी एक बड़ी बाधा आई और कम-से-कम एक साल का समय उसके साथ जूझने में पूरा हो गया। वह बाधा कहीं बाहर से नहीं, भीतर से उभरी । उसका हेतु था देह के प्रति रहा हुआ गहरा उपेक्षाभाव । गर्मी का समय, राजस्थान की तपती दुपहरी और तारानगर - प्रवास में रचनाधर्मिता के बहुमूल्य क्षण । आचार्यश्री भोजन के बाद चार-पांच घंटों तक बराबर लेखन-कार्य में व्यस्त रहते । मस्तिष्क के तंतुओं पर दबाव पड़ा। शरीर का एक पार्श्व कुंठित हो गया । फलतः संवत १६६६ के चूरू चातुर्मास में 'कालूयशोविलास' निर्माण कार्य की तो बात ही क्या, कई महीनों तक प्रवचन तक स्थगित करना पड़ा। इस तीव्र गत्यवरोध के बावजूद आचार्यश्री अपने संकल्प पर दृढ़ थे और स्वास्थ्य में थोड़ा-सा सुधार होते ही पुनः सृजन-चेतना के प्रति समर्पित हो गए । आचार्यश्री के शारीरिक अस्वास्थ्य में एक और हेतु की संभावना की जा सकती है, वह है कविता में दग्धाक्षरों का प्रयोग । पूज्य कालूगणी ने सृजनशील साहित्यकारों का निर्माण किया, पर साहित्य का सृजन नहीं किया। क्यों ? क्या उनकी सृजन-चेतना पर कोई आवरण था ? सृजन की संपूर्ण क्षमताओं की समन्विति में भी कालूगणी के मन में यह बात रमी हुई थी कि कविता में समागत दग्धाक्षर बहुत बड़े अहित का निमित्त बन जाता है। संभावित अहित की कल्पना ने कालूगणी की साहित्यिक प्रतिभा को दूसरा मोड़ दे दिया । आचार्यश्री तुलसी की साहित्यिक प्रतिभा में प्रारंभ से ही स्फुरणा थी । ‘कालूयशोविलास’ उसी स्फुरणा की एक निष्पत्ति है । स्फुरणा के अनिरुद्ध प्रवाह में एक पद्य लिखा गया - गुरु-गुण अगणित गगन-सम, मम मति परिमित मान । अल्प अनेहा बहु विघन, क्यूं कर है अवसान ।। काव्यविदों के अनुसार 'अल्प अनेहा बहु विघन' इस प्रयोग में दग्धाक्षर है। प्रारंभ में इस प्रयोग पर ध्यान केंद्रित नहीं हुआ । पर अस्वास्थ्य की गंभीरता कालूयशोविलास-२ / १३
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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