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________________ मंगल वचन दोहा १. आर्य कार्य की आदि में, आर्य-स्मरण अनिवार्य। आर्यप्रवर अविकार्य वर, ध्याऊं धर्माचार्य ।। पवित्र कार्य के प्रारंभ में आर्यपुरुष का स्मरण अनिवार्य है। धर्माचार्य आर्यों में प्रवर तथा अविकारी जनों में प्रमुख होता है, इसलिए मैं उसका ध्यान करता हूं। २. पुरुषोत्तम का प्रतिनिधि, हृदय उदधिवत हृद्य। सिद्धि संपजै सेवतां, सतत सविधि साविध्य।। धर्माचार्य परुषोत्तम (तीर्थंकर) का प्रतिनिधि होता है। उसका हृदय समुद्र की भांति गंभीर और विशाल होता है। उसकी सतत विधिपूर्वक आसन्नभाव से सेवा करने से सिद्धि की संप्राप्ति होती है। ३. पंच पंच-परमेष्ठि का, तत्त्व-त्रयी का त्राय। सत्त्वमयी भुवनत्रयी, त्रयीतनू तमसाय।। धर्माचार्य पंच परमेष्ठी का पंच-मध्यस्थ और देव, गुरु एवं धर्म-इस तत्त्वत्रयी का भी त्राता-मध्यस्थ होता है। सत्त्वमय तीन लोक के अंधकार को दूर करने के लिए वह सूर्य है। ४. गुरु धाता त्राता गुरु, सुखसाता दातार। पितु माता भ्राता गुरु, भव-भय-भंजनहार।। गुरु धाता-धारण करने वाला या निर्माण करने वाला है, त्राता-रक्षक और सुख एवं अनुकूलता देने वाला है। वह पिता, माता और भ्राता के समान पालन-पोषण करने वाला है। संसार भ्रमण के भय से मुक्त करने वाला है। उल्लास : पंचम / १२५
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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