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कहूं कातरां री करारी कटारी,
थवा काल-क्यारी घटारी-मठारी।। ३३. गणिराज राजै बठै बेधड़क्के, जिणें मान-मातंग मोड्यो मड़क्के। सुबुद्धी सुधी शिष्य-संघात संगे,
सझै सेव चंगे अभंगे उमंगे।। ३४. रही ओलि-दोली सही भक्त-टोली,
कहीं तम्बु छोली सतोली टटोली। कहीं चद्दरी वा दरी वा बिछोली,
कहीं धोलि-धोली समी भूमि जोली।। ३५. किते लोचनालोक स्वामी निभाले,
किते भेल-भाले सिनेरी संभाले। किते चाल-चाले किते शाल भाले,
किते मीट माल्हे किते घोर घाले।। ३६. फबे फूलचौकी अनोखी अमन्दा,
सहू दोखि-सोखी परे हो समन्दा। नहीं चांदनी भी चमक्की जु चन्दा,
लही रोचनी रोशनी मूल-नन्दा।। ३७. जच्यो रंग जाचो मच्यो छक्क मातं,
अचक्का उड़ातं तहीं सुक्खसातं। नहीं भीति-भातं कहीं ईति-आतं, दया देव ख्यातं भुजंगप्रयातम् ।।
दोहा
३८. कड़कड़ाट कर केहरी, धड़हड़ धड़क्यो धींग। ___थड़हड़ थड़क्यो कातरां-कालेजो सुण डींग।। ३६. आज दहाड्यो केहरी क्यूं है कारण ज्ञात?
नहीं अगर तो ल्यो सुणो, कवी कल्पना ख्यात।।
मोतीदाम छंद ४०. विराजनतें जिन शासनछत्र, अलौकिक आब समन्वित सत्र।
खिली विटपावलि यत्र हि तत्र, विकासित है वनराजि विचित्र।।
१०४ / कालूयशोविलास-२