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समय में आ गई थी। अतः आचार्य गुणधर आचार्य धरसेन से पूर्ववर्ती हैं। इनके गुरु आदि के सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है। अतः आचार्य गुणधर का समय विक्रमपूर्व प्रथम शताब्दी मानना सर्वथा उचित है। उनकी रचना 'कसायपाहुड' है, जिसका दूसरा नाम 'पेज्जदोसपाहुड' भी है। भाषा की दृष्टि से भी 'छक्खंडागम' से 'कसायपाहुड' की भाषा अप्राचीन है। 16,000 पद-प्रमाण 'कसायपाहुड' के विषय को संक्षेप में एक सौ अस्सी गाथाओं में ही उपसंहृत कर दिया है। यह स्पष्ट है कि 'कसायपाहुड' की शैली गाथासूत्र-शैली है एवं आचार्य गुणधर दिगम्बर-परम्परा के सर्वप्रथम सूत्रकार हैं। आचार्य धरसेन
धवलाग्रंथ के अनुसार 'छक्खंडागम' विषय के ज्ञाता 'आचार्य धरसेन' थे। सौराष्ट्र देश के 'गिरिनगर' (गिरनार) की 'चन्द्रगुफा' में रहने वाले अष्टांग-महानिमित्त के पारगामी, प्रवचनवत्सल थे। अंगश्रुत के विच्छेद के भय से उन्होंने 'पुष्पदन्त' और 'भूतबलि' नाम के दो शिष्यों को अपने अंगश्रुत की शिक्षा दी थी। आचार्य धरसेन के गुरु का नाम यद्यपि पता नहीं चलता; तथापि श्रुतावतार में 'अर्हद्बलि', 'माघनन्दि' और 'धरसेन' – इन तीनों आचार्यों का उल्लेख मिलने के कारण इन तीनों में परस्पर गुरु-शिष्य-सम्बन्ध की संभावना की जाती है। अभिलेखीय प्रमाण के आधार पर धरसेन का समय ईसापूर्व की प्रथम शताब्दी आता है। आचार्य धरसेन सिद्धान्तशास्त्र के ज्ञाता थे। इनके विषय में 'षट्खण्डागम'-टीका से जो तथ्य उपलब्ध होते हैं, उनसे ऐसा ज्ञात होता है कि धरसेनाचार्य मन्त्र-तन्त्र के भी ज्ञाता थे। 'धवलाटीका' में भी 'योनिप्राभृत' नामक मन्त्रशास्त्र-सम्बन्धी इनके एक अन्य ग्रन्थ का निर्देश मिलता है।
उनके बारे में धवलाटीका से यह जानकारी प्राप्त होती है कि - धरसेन सभी अंग और पूर्वो के एकदेश ज्ञाता, अष्टांग-महानिमित्त के पारगामी, लेखनकला में प्रवीण, मन्त्र-तन्त्र आदि शास्त्रों के वेत्ता, 'महाकम्मपयडिपाहुड' के वेत्ता, प्रवचन
और शिक्षण देने की कला में पटु, प्रवचनवत्सल, प्रश्नोत्तरशैली में शंकासमाधानपूर्वक शिक्षा देने में कुशल, महनीय विषय को संक्षेप में प्रस्तुत करने के ज्ञाता, अग्रायणीयपूर्व के पंचम वस्तु के चतुर्थ प्राभृत के व्याख्यानकर्ता एवं पठन, चिंतन व शिष्य-उद्बोधन की कला में पारंगत थे। आचार्य पुष्पदन्त
'आचार्य पुष्पदन्त' और 'आचार्य भूतबलि' का नाम साथ-साथ मिलता है। प्राकृतपट्टावली के अनुसार आचार्य पुष्पदन्त आचार्य भूतबलि से ज्येष्ठ माने जाते हैं। परन्तु दोनों ही आचार्यों ने आचार्य धरसेन के सान्निध्य से श्रुत की शिक्षा प्राप्त की
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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