________________
1. श्रुतधराचार्य
_ 'श्रुतधराचार्य' से अभिप्राय उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त-साहित्य. कर्म-साहित्य, अध्यात्म-साहित्य का ग्रथन दिगम्बर-आचार्यों के चारित्र और गुणों का जीवन में निर्वाह करते हुये किया है। वैसे तो प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग
और द्रव्यानुयोग का पूर्व-परम्परा के आधार पर ग्रन्थरूप में प्रणयन करने का कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं। पर केवली और श्रुतकेवलियों की परम्परा में जो अंग या पूर्वो के एकदेशज्ञाता आचार्य हुये हैं, उनका इतिवृत्त श्रुतधर-आचार्यों की परम्परा के अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायेगा। अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि, यतिवृषभ, उच्चारणाचार्य, आर्यभक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृद्धपिच्छाचार्य और बप्पदेव की गणना की जा सकती है।
'श्रुतधराचार्य' युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य हैं। इन्होंने प्रतिभा के क्षीण होने पर नष्ट होती हुई श्रुतपरम्परा को मूर्तरूप देने का कार्य किया है। यदि श्रुतधराचार्य इसप्रकार का प्रयास नहीं करते, तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर-आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्परा को जीवित रखने की दृष्टि से वे ग्रन्थ-प्रणयन में संलग्न रहते थे। श्रुत की यह परम्परा 'अर्थश्रुत' और 'द्रव्यश्रुत' के रूप में ईसापूर्व की शताब्दियों से आरम्भ होकर ईसा की चतुर्थ-पंचम शताब्दी तक चलती रही है। अतएव श्रुतधर-परम्परा में कर्मसिद्धान्त, लोकानुयोग एवं सूत्ररूप में ऐसा निबद्ध-साहित्य, जिस पर उत्तरकाल में टीकायें, विवृत्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
प्रमुख और प्रभावक श्रुतधराचार्यों का विवरण निम्नलिखित हैआचार्य गुणधर
श्रुतधराचार्यों की परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य 'गुणधर' का नाम आता है। 'गुणधर' और 'धरसेन' दोनों ही श्रुत-प्रतिष्ठापक के रूप में प्रसिद्ध हैं। 'जयधवला' के मंगलाचरण के पद्य से ज्ञात होता है कि आचार्य गुणधर ने 'कसायपाहुड' का गाथाओं द्वारा व्याख्यान किया है
जेणिह कसायपाहुडमणेय-णयमुज्जलं अणंतत्थं।
गाहाहि विरचिदं तं गुणहरभडारयं वंदे॥ 6॥ वीरसेन आचार्य के अनुसार आचार्य गुणधर पूर्वविदों की परम्परा में सम्मिलित थे। एक अन्य प्रमाण से यह माना जाता है कि गुणधर ऐसे समय में हुये थे, जब पूर्वो के आंशिक ज्ञान में उतनी कमी नहीं आई थी, जितनी कमी आचार्य धरसेन के
0034
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ