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थी। शिक्षा-समाप्ति के उपरान्त सुन्दर दंतपक्ति के कारण उनका नाम 'पुष्पदन्त' रखा गया। धवलाटीका में भी पुष्पदन्त के नाम का इस प्रकार उल्लेख है
"अवरस्स वि भूदेहि पूजिदस्स अत्थवियत्थ-ट्ठिय-दंत-पंतिमोसामिय भूदेहि' समीकय-दंतस्स 'पुप्फदंतो' त्ति णामं कदं।"
अर्थात् देवों ने पूजा कर जिनकी अस्तव्यस्त दंतपंक्तियों को ठीक कर सुन्दर बना दिया, उनकी धरसेन भट्टारक ने 'पुष्पदन्त' संज्ञा दी।
नंदिसंघ की प्राकृतपट्टावली के अनुसार पुष्पदन्त भूतबलि से पूर्ववर्ती थे। उनके अनुसार इनका समय ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के लगभग होना चाहिये। आचार्य पुष्पदन्त के वैशिष्ट्य के रूप में यह तथ्य ज्ञातव्य है कि 'षटखंडागम' का आरंभ आचार्य पुष्पदन्त ने किया है। पुष्पदन्त 'महाकर्मप्रकृतिप्राभृत' के अच्छे ज्ञाता एवं उसके व्याख्याता के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। यद्यपि सूत्रों के रचयिताओं का नाम नहीं मिलता है; पर धवलाटीका के आधार पर 'सत्प्ररूपणा' के सूत्रों के रचयिता पुष्पदन्त हैं। पुष्पदन्त ने अनुयोगद्वार और प्ररूपणाओं के विस्तार को अनुभव कर ही सूत्रों की रचना प्रारम्भ की होगी। आचार्य भूतबलि
आचार्य 'पुष्पदन्त' के साथ आचार्य 'भूतबलि' ने भी समानकाल में आचार्य 'धरसेन' से सिद्धान्त-विषय का अध्ययन किया था। तदुपरान्त उन्होंने 'अंकलेश्वर' में चातुर्मास समाप्त कर 'द्रविड़' देश में सूत्र का निर्माण किया। श्रवणबेलगोल के एक शिलालेख में पुष्पदन्त के साथ भूतबलि को भी 'अर्हद्बलि का शिष्य' कहा है। इस कथन से ऐसा ज्ञात होता है कि भूतबलि के दीक्षागुरु 'अर्हद्बलि' और शिक्षागुरु 'धरसेनाचार्य' रहे होंगे। ___भूतबलि के व्यक्तित्व और ज्ञान के सम्बन्ध में 'धवलाग्रन्थ' में यह बताया गया है कि "भूतबलि भट्टारक असंबद्ध बात नहीं कह सकते। अतः महाकर्मप्रकृतिप्राभृतरूपी अमृतपान से उनका समस्त राग-द्वेष-मोह दूर हो गया है।" जिससे यह स्पष्ट होता है कि भूतबलि 'महाकर्मप्रकृतिप्राभृत' के पूर्णज्ञाता थे। इसलिये उनके द्वारा रचित सिद्धान्तग्रन्थ सर्वथा निर्दोष और अर्थपूर्ण है। भूतबलि का समय भी ईसापूर्व प्रथम शताब्दी का अन्तिम चरण माना जाता है।
___ 'इन्द्रनन्दि' ने अपने 'श्रुतावतार' में यह लिखा है कि भूतबलि आचार्य ने षट्खण्डागम की रचना कर उसे ग्रन्थरूप में निबद्ध किया था। श्रुतावतार से इस ग्रन्थ के बारे में यह जानकारी मिलती है कि आचार्य पुष्पदन्त ने 'षट्खण्डागम' की रूपरेखा निर्धारित कर सत्प्ररूपणा-सूत्रों की रचना की थी और शेष-भाग को भूतबलि ने समाप्त किया था।
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भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ