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इस द्वादशांगी श्रुत के परिमाण एवं विषय के बारे में डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने निम्नानुसार परिचय दिया है 7
'आचारांग' में 19,000 पदों द्वारा मुनियों के आचार का वर्णन रहता है। अर्थात् मुनि को कैसे चलना चाहिये, कैसे खड़ा होना चाहिये, कैसे बैठना चाहिये, कैसे सोना चाहिये, कैसे भोजन करना चाहिये और कैसे वार्तालाप करना चाहिये इत्यादि विषयों का कथन किया गया है।
'सूत्रकृतांग' में 36,000 पदों द्वारा ज्ञानविनय, प्रज्ञापना, कल्प्य - अकल्प्य, छेदोपस्थापना आदि व्यवहारधर्म की क्रियाओं का वर्णन है, तथा इस अंग में स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्त कथन भी समाविष्ट हैं।
'स्थानांग' में 42,000 पद होते हैं। इसमें एक से लेकर उत्तरोत्तर एक-एक अधिक स्थानों का निरूपण किया जाता है।
'समवायांग' में 1,64,000 पद होते हैं। इसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप समवाय का चित्रण किया गया है। इसप्रकार समानता की अपेक्षा जीवादि पदार्थों के समवाय का वर्णन समवायांग में उपलब्ध होता है।
'व्याख्याप्रज्ञप्ति' अंग में 2,28,000 पद होते है ।। इसमें 60,000 प्रश्नों द्वारा जीव, अजीव आदि पदार्थों का विवेचन किया जाता है।
'ज्ञातृधर्मकथा' नामक अंग में 5,56,000 पद होते हैं। इसमें तीर्थंकरों की धर्मदेशना, विविध प्रश्नोत्तर एवं पुण्यपुरुषों के आख्यान वर्णित हैं।
‘उपासकाध्ययन' अंग में 11,70,000 पद हैं और इसमें श्रावकाचार का निरूपण किया गया है।
'अन्तःकृद्दशांग' नामक अंग में 23,28,000 पद हैं। इसमें प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थकाल में अनेक प्रकार के दारुण उपसर्गों को सहन कर निर्वाण प्राप्त करनेवाले दस-दस अन्तःकृत-केवलियों का वर्णन है।
'अनुत्तरौपपादिकदशा' नामक अंग में 92,44,000 पद हैं और एक-एक तीर्थंकर के तीर्थकाल में नानाप्रकार के दारुण-उपसर्गों को सहन कर पाँच अनुत्तर - विमानों में जन्म - ग्रहण करने वाले दस-दस मुनियों का चरित्र अंकित है। 'प्रश्नव्याकरण' अंग में आक्षेप - प्रत्याक्षेपपूर्वक प्रश्नों का समाधान अंकित है। प्रकारान्तर से कहें तो आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदिनी और निर्वेदिनी इन चार
कथाओं का विस्तृत वर्णन है।
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‘विपाकसूत्र' अंग में 1,84,00,000 पद हैं। इसमें पुण्य और पापरूप कर्मों का फल भोगनेवाले व्यक्तियों का चरित्र निबद्ध है।
'उत्पादपूर्व' में जीव, पुद्गल, काल आदि द्रव्यों के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का वर्णन है। 'अग्रायणीयपूर्व' में सात सौ सुनय और दुर्नय; छः द्रव्य, नौ पदार्थ, एवं
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भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ