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पंचास्तिकायों का वर्णन है। 'वीर्यानुप्रवाह' में आत्मवीर्य, परवीर्य, उभयवीर्य, क्षेत्रवीर्य, कालवीर्य, भववीर्य और तपवीर्य का वर्णन आया है । 'अस्ति नास्तिप्रवादपूर्व' में स्वरूपचतुष्टय की अपेक्षा समस्त द्रव्यों के अस्तित्व का और पररूपचतुष्टय की अपेक्षा उनके नास्तित्व का वर्णन है। 'ज्ञानप्रवादपूर्व' में पाँच सम्यग्ज्ञान और तीन कुज्ञान इन आठ ज्ञानों का विस्तारपूर्वक वर्णन है। 'सत्यप्रवादपूर्व' में दशप्रकार के सत्यवचन, अनेक प्रकार के असत्यवचन और बारह प्रकार की भाषाओं का प्रतिपादन किया गया है। विषयवर्णन की दृष्टि से आधुनिक मनोविज्ञान ‘ज्ञानप्रवाद' और 'सत्यप्रवाद' के अन्तर्गत हैं। 'आत्मप्रवादपूर्व' में निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयों की अपेक्षा जीव के कर्तृत्व, भोक्तृत्व, सूक्ष्मत्व, अमूर्त्तत्व आदि का विवेचन किया है। 'कर्मप्रवादपूर्व' में आठों कर्मों के स्वरूप, कारण एवं भेद-प्रभेदों का चित्रण किया है। 'प्रत्याख्यानपूर्व' में सावद्यवस्तु का त्याग, उपवास-विधि, पंच-समिति, तीन गुप्ति आदि का वर्णन है। 'विद्यानुवादपूर्व' में सात सौ अल्पविद्याओं का और पाँच सौ महाविद्याओं का विवेचन किया गया है, जिनमें आठ महानिमित्तों का विषय भी निबद्ध है। वर्तमान सामुद्रिक शास्त्र, प्रश्न, सूर्य, चन्द्र, ग्रह, तारागण आदि के चारक्षेत्र, उपपादस्थान, गति, विपरीतगति और उनके फलों का निरूपण है। ज्योतिषशास्त्र के गणित और फलित दोनों ही विभाग इसी पूर्व के अर्न्तगत हैं। 'प्राणावायपूर्व' में अष्टांग आयुर्वेद, भूतिकर्म, विषविद्या एवं विभिन्न प्रकार के भौतिक विषयों का परिज्ञान सम्मिलित है। रसायनशास्त्र और भौतिकशास्त्र सम्बन्धी अनेक सिद्धान्त भी इस पूर्व में समाविष्ट हैं। 'क्रियाविशालपूर्व' में बहत्तर छन्दशास्त्रों का वर्णन है । 'लोकबिन्दुसार' नामक पूर्व में आठ प्रकार के व्यवहार, चार प्रकार के बीज, मोक्ष प्राप्त करानेवाली क्रियायें एवं मोक्ष के सुख का वर्णन है।
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'अग्रायणीय' में पूर्वान्त, अपरान्त आदि चौदह प्रकरण थे। इनमें से पंचम प्रकरण का नाम 'चयनलब्धि' था, जिसमें बीस पाहुड विद्यमान थे। बीस पाहुडों में से चतुर्थ पाहुड का नाम 'कर्मप्रकृति' था। इस 'कर्मप्रकृतिपाहुड' के कृति, वेदना आदि चौबीस अनुयोगद्वार थे; जिनकी विषयवस्तु को ग्रहण कर 'षट्खण्डागम' के जीवट्ठाण, खुद्दाबंध, बंधसामित्त-विचय, वेदणा, वग्गणा और महाबंध खण्डों की रचना हुई है। इसका कुछ अंश 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' नामक जीवस्थान की आठवीं चूलिका को बारहवें अंग 'दृष्टिवाद' के द्वितीय भेद 'सूत्र' से तथा ‘गति-आगति' नामक नवीं चूलिका की 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' से उत्पन्न बताया गया है। इसप्रकार वर्तमान आगम - साहित्य का सम्बन्ध 'दृष्टिवाद अंग' के साथ है। 'द्रव्यश्रुत' के दूसरे भेद ' अंगबाह्य' के चौदह भेद हैं
1. सामायिक, 2. चतुर्विंशतिस्तव, 3. वन्दना, 4. प्रतिक्रमण, 5. वैनयिक, 6. कृतिकर्म, 7. दशवैकालिक, 8. उत्तराध्ययन, 9. कल्पव्यवहार, 10. कल्प्याकल्प्य
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भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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