________________
इन विद्याओं की सत्यता जानने के पश्चात् प्रजाजनों को इनके उपयोग की वैज्ञानिक विधि बतलाई। एक आधुनिक जैन विद्वान् ने इन्हें 'मानव संस्कृति का प्रथम सूत्रधार' मानते हैं। इनके अनुसार "तीर्थंकर ऋषभ मानव- - संस्कृति के प्रथम सूत्रधार थे। उन्होंने अहिंसक - स 5- समाज - व्यवस्था का सूत्रपात किया और असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छः क्रियाओं के माध्यम से जीवन-यापन की शिक्षा देकर देश को वैज्ञानिक युग में प्रवेश दिलाया। वे ऐसे युग में पैदा हुए, जब देश संक्रान्ति - काल से गुजर रहा था । वन्य-जीवन, छोटे-छोटे कबीलों के जीवन एवं कल्पवृक्षों पर आधारित जीवन को नई दिशा की ओर मोड़ा तथा सबको ग्रामीण - जीवन एवं नागरिक जीवन जीना सिखाया। समाज को एक सूत्र में बांधने एवं सबमें अपने-अपने कार्यों के प्रति निष्ठा जागृत करने के लिए समाज को क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र वर्गों में कर्मानुसार विभाजित किया और अपने जीवन में ही उसके अच्छे परिणाम देखे । '
116
――
ऋषभदेव को 'इक्ष्वाकुवंश' का माना गया है, जिसमें कालान्तर में श्रीराम का जन्म हुआ था। इनकी दो पत्नियां थीं। एक का नाम 'सुनन्दा' व दूसरी का 'नन्दा' था। इनसे इनके 101 पुत्र और 2 पुत्रियां पैदा हुईं। उनके बड़े पुत्र का नाम 'भरत' था। यही भरत इस युग में भारतवर्ष के 'प्रथम चक्रवर्ती' राजा हुए।' एक जैनविद्या के ज्ञाता इस सन्दर्भ में लिखते हैं कि इन्हीं भरत के नाम पर 'भारत देश' का नामकरण हुआ है। इसके अनुसार "ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत थे । वे प्रथम सम्राट् थे। उन्होंने इस देश का नाम 'भारत' रखा और वह भारतवर्ष कहलाने लगा। जिस दुष्यंत के पुत्र भरत के नाम से भारत का नाम माना जाता है, वह तो चक्रवर्ती भरत के बहुत बाद में हुए थे। चक्रवर्ती भरत ने ही देश को राजनीतिक स्वरूप प्रदान किया। जैन - भूगोल के अनुसार उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक सारा देश 'भरत क्षेत्र' कहलाता है। यहाँ गंगा एवं सिन्धु नदी बहती है और देश की भूमि को शस्यश्यामला बनाती है। चक्रवर्ती भरत के छोटे भाई बाहुबलि ने पोदनपुर में तप साधना की और कैवल्य प्राप्त किया था। इसलिए उत्तर से दक्षिण तथा पूर्व से पश्चिम तक सारा देश 'भारतवर्ष' कहलाता है। "8
जैन-परम्परा में ऋषभदेव को 'मर्यादा पुरुषोत्तम' भी मानते हैं। इसके अनुसार उनके आचरण को आदर्श मानकर मानव समाज में प्रथम बार मर्यादायें स्थापित हुईं। उन्होंने आदर्श प्रजापालक शासक, आदर्श पति एवं पिता के रूप में तो अपने आचरण से आम जनता को प्रभावित किया ही, साथ ही उन्होंने एक साधु व धर्मोपदेशक के रूप में मानव के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। मानव समाज को अपने आपसी सहयोग एवं सौहार्द की भावना के साथ सुचारुरूप से चलाने के लिए ऋषभदेव ने अपनी अप्रतिम प्रतिभा व सूझबूझ के आधार पर आवश्यक नियम - उपनियम बना दिए ।
00 4
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ