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समाज के वरिष्ठजनों व अग्रजनों ने नियमों व मर्यादाओं का पालन करवाने के लिये नाभि-राजा से अपने पुत्र ऋषभदेव को 'प्रथम शासक' बनाने का अनुरोध किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया और ऋषभदेव सभी प्रजाजनों की आम सहमति से तत्कालीन समाज के प्रथम राजा के रूप में अभिषिक्त किये गये।
___ इसके पश्चात् जैन-पुराणों व अनुश्रुतियों के अनुसार सत्ता के सभी आनन्द लेते हुए व प्रजा का सन्तान की तरह पालन करते हुए शासन करते रहे। फिर एक दिन 'नीलाञ्जना' नामक नृत्यांगना को नृत्य करते अचानक काल-कवलित होते देख, उन्हें वैराग्य हो गया तथा वे सबकुछ त्यागकर निर्ग्रन्थ मुनिदीक्षा अंगीकार करके ध्यानसाधना में लीन हो गये। इसके पहले उन्होंने अपने बड़े पुत्र भरत को अयोध्या का तथा शेष 99 पुत्रों को अन्य अलग-अलग राज्यों का शासक बनाया था, तब वन में जाकर उन्होंने जिन-दीक्षा अंगीकार कर ली।'
जैन-ग्रन्थों, जनश्रुतियों व परम्परा का अनुशीलन करते हुये पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने संक्षेप में ऋषभदेव के जीवनवृत्त को चित्रित करते हुए लिखा है कि "एक दिन भगवान् ऋषभदेव राजसिंहासन पर विराजमान थे। राजसभा लगी हुई थी और 'नीलाञ्जना' नाम की अप्सरा नृत्य कर रही थी। अचानक नृत्य करते-करते नीलाञ्जना का शरीरपात हो गया। इस आकस्मिक घटना से भगवान् का चित्त विरक्त हो उठा। तुरंत सब पुत्रों को राज्यभार सौंपकर उन्होंने प्रव्रज्या ले ली और छः माह की समाधि लगाकर खड़े हो गये। उनकी देखा-देखी और भी अनेक राजाओं ने दीक्षा ली। किन्तु वे भूख-प्यास के कष्ट को न सह सके और मार्गच्युत हो गये। छ: माह के बाद जब भगवान् की समाधि भंग हुई, तो वे आहार के लिये निकले। उनके प्रशांत नग्न-रूप को देखकर प्रजा उमड़ पड़ी। कोई उन्हें वस्त्र भेंट करता था, कोई भूषण भेंट करता था, कोई हाथी-घोड़े लेकर उनकी सेवा में उपस्थित होता था; किन्तु निर्ग्रन्थ जैन-मुनि को आहार देने की विधि कोई नहीं जानता था, अतः उनका आहार संभव नहीं हो सका। इस तरह घूमते-घूमते छः माह और बीत गये।
इसी तरह घूमते-घूमते एक दिन ऋषभदेव हस्तिनापुर में जा पहुँचे। वहाँ का राजा श्रेयांस बड़ा दानी था। उसने भगवान् का बड़ा आदर-सत्कार किया। आदरपूर्वक भगवान् को प्रतिग्रह (पड़गाहना) करके उच्चासन पर बैठाया, उनके चरण धोये, पूजन की और फिर नमस्कार करके बोला - "भगवान्! यह इक्षुरस, प्रासुक है, निर्दोष है; इसे आप स्वीकार करें।" तब भगवान् ने खड़े होकर अपनी अंजलि में रस लेकर पिया। उस समय लोगों को जो आनन्द हुआ, वह वर्णनातीत है। मुनिराज ऋषभदेव का यह आहार वैसाख शुक्ला तीज के दिन हुआ था। इसी से यह तिथि 'अक्षय तृतीया' कहलाती है। आहार करके मुनिराज ऋषभदेव फिर वन को चले गये और आत्मध्यान में लीन हो गये। एक बार मुनिराज ऋषभदेव 'पुरमताल' नगर के
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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