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को सत्यापित किया है। इन तीर्थंकरों के बारे में जैन धर्मानुयायियों की स्पष्ट मान्यता है कि उन्होंने देश एवं समाज को असत्य के युग से सत्य के युग में प्रवेश दिलाया तथा पापी से नहीं, अपितु पाप से घृणा करने का मन्त्र सिखलाया। इन सभी ने समानरूप से देश एवं समाज को अध्यात्म की ओर ले जाने में सफलता प्राप्त की तथा पूरे समाज को धर्ममय बनाने का पुनीत कार्य किया। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव
भगवान् ऋषभदेव को जैनधर्म व संस्कृति का प्रवर्तक माना जाता है, यतः जैन-परम्परानुसार वे प्रथम तीर्थंकर थे। इनके बारे में पुष्ट ऐतिहासिक तथ्यों का भले ही अभाव है, किन्तु भारतीय संस्कृति के पुराणों को एवं वैदिक वाङ्मय से इनके जीवन, व्यक्तित्व एवं अवदान की महनीयता पुष्ट होती है। अनेक समकालीन स्रोतों से पता चलता है कि ऋषभदेव का जन्म अयोध्या में हुआ था। महाराजा 'नाभिराय' उनके पिता थे और माता का नाम 'मरुदेवी' था। ऋषभदेव को जन्मजात दिव्य-पुरुष माना जाता है। जैनधर्म के प्रमुख-ग्रन्थ 'आदिपुराण' में लिखा है कि "जिस समय ये गर्भ में थे, उस समय देवताओं ने स्वर्ण की वृष्टि की इसलिए इन्हें 'हिरण्यगर्भ' भी कहते हैं"4 इनके समय में प्रजा के सामने जीवन की समस्या विकट हो गई थी, क्योंकि जिन कल्पवृक्षों से लोग अपना जीवन-निर्वाह करते आये थे, वे लुप्त हो चुके थे और जो नई वनस्पतियाँ पृथ्वी पर उगी थीं, वे उनका उपयोग करना नहीं जानते थे। तब इन्होंने उन्हें उगे हुए इक्षु-दण्डों से रस निकालकर क्षुधा शान्त करना सिखलाया। इसलिए इनका वंश 'इक्ष्वाकुवंश' के नाम से प्रसिद्ध हुआ और ये उसके 'आदिपुरुष' कहलाये। इन्होंने प्रजा को कृषि, असि, मसि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या
- इन षट्कर्मों से आजीविका करना बतलाया; इसलिए इन्हें 'प्रजापति' भी कहा जाता है। सामाजिक व्यवस्था को चलाने के लिए इन्होंने तीन वर्गों की स्थापना की। जिनको रक्षा का भार दिया, वे 'क्षत्रिय' कहलाये; जिन्हें खेती, व्यापार, गोपालन आदि के कार्य में नियुक्त किया गया, वे 'वैश्य' कहलाये; और जो सेवा-निवृत्ति करने के योग्य समझे गये, उन्हें 'शूद्र' नाम दिया गया। इसप्रकार जैन-विद्वान् एवं धर्मानुयायी ऋषभदेव को पहला व्यक्ति मानते हैं, जिन्होंने धर्म के साथ-साथ सामाजिक व्यवस्था का सूत्रपात किया। इनके युग को 'विज्ञान का प्रथम-परीक्षणकाल' भी कहा जाता है।
ऋषभदेव को महाराज नाभि के पुत्र होने के कारण शासन करने का स्वयमेव अधिकार मिल गया और वे अपने पिता के सान्निध्य में प्रजा की समस्याओं का समाधान करने लगे। इसलिए इनको उसी समय से 'प्रजापति' के रूप में भी जाना जाता है। उन्होंने स्वयं छः विद्याओं का परीक्षण व प्रयोग अपने जीवन में किया और
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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