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अलबेली आम्रपाली १५७
देवी आम्रपाली का हृदय बांसों उछलने लगा । स्त्री के लिए सर्वस्व होता है प्रियतम । उसका आगमन और वह भी प्रतीक्षा के पश्चात् जीवन में विशेष आनन्द भर देता है | देवी आम्रपाली आनन्दविभोर हो उठी । वह अवाक् रह गयी ।
माविका ने कहा - "देवि !... "
"अरे, चल मैं वहीं आती हूं।"
• माध्विका के साथ आम्रपाली मन्द मन्द गति से बढ़ी । गति मन्द थी, पर मन त्वरा बहुत थी ।
जब आम्रपाली उस कक्ष में पहुंची तब तक बिबिसार नहा-धोकर आ पहुंचे
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थे । वे आम्रपाली को देखते ही आसन से उठे और पूछा - "देवि ! प्रसन्न तो हो ? कुशल-क्षेम तो है ?"
आम्रपाली अवाक् थी । उसकी आंखें हर्ष के आंसुओं से डबडबा आयीं। वह आते ही प्रियतम के चरणों में लुढ़क गयी और आंसुओं के मोतियों से उनके चरण पखारे ।
बिबसार ने आम्रपाली को हाथों से उठाया और कहा - "प्रिये ! जो वादा किया था उसके अनुसार आ पहुंचा हूं।"
“अब...।”
आम्रपाली मौन थी । वह अपना मस्तक प्रियतम के वक्षस्थल पर टिका कर बोली - " आपको मैंने स्वेच्छा से मृगया के लिए विदा दी थी। पर मैं नहीं जानती थी कि विरह की व्यथा कितनी विकराल होती है । मुझे यह ज्ञात नहीं था कि इस नाजुक अवस्था में प्रियतम ही अपनी प्रिया को आनन्दित रख सकते हैं । खैर, अब मैं कभी आपको यहां से..."
और उसी समय वसन्तगृह के प्रांगण में एक रथ आकर रुका। उसमें से सिंह सेनापति उतर रहे थे ।
परिचारिकाओं ने उनका स्वागत किया और उन्हें आम्रपाली के कक्ष तक पहुंचा दिया । आम्रपाली दूर से गणनायक को आते देख अपने आसन से उठी और निकट आते ही हाथ जोड़कर बोली--: पधारो, आपका स्वागत है ।"
" पुत्रि ! कुशल तो है न ?"
"हां, पिताश्री !"
दोनों कक्ष में गए । स्वर्ण आसन पर गणनायक को बिठाकर आम्रपाली ने कहा - "बापू ! क्या आज्ञा है ?"
"पुत्रि ! क्या आचार्य जयकीर्ति आखेट से आ गए ?"
"पिताजी अभी-अभी आए हैं। पर जनता के समक्ष वीणावादन करना, यह उनके लिए अशक्य है ।"