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१५६ अलबेली आम्रपाली
मैं उन्हें जाने की स्वीकृति नहीं देती। मेरी स्वीकृति के बिना वे नहीं जाते, यह मुझे पूरा विश्वास है । पर अब क्या हो ?
उसे अपने वराह के आखेट की स्मृति हो आयी । उस स्मृति मात्र से वह सिहर उठी । ओह ! कैसा भयंकर था वह वराह ! मैं स्वयं उसके चंगुल में थी । मुझसे मौत का फासला केवल दो हाथ का । यदि उस समय आचार्य जयकीर्ति ने उस वराह को धराशायी न कर दिया होता, तो आज।
चिन्तन चलता रहा । स्मृति के चलचित्र एक-एक उभर रहे थे। कभी वह कांप उठती और कभी वह प्रसन्न हो जाती ।
दूसरे ही क्षण उसने सोचा, यदि मैं मृगया के लिए उस समय नहीं जाती तो आचार्य जयकीर्ति का परिचय कैसे होता ? कैसे होता यह प्रणय प्रसंग ! कैसे होता स्वर्गीय सुख का प्रणयन और कैसे होता प्रतिबिम्ब का निर्माण ओह!
आज अब वे कहां हैं ? सात दिन का कह गए थे, आज पांच दिन हो गए हैं। क्या किसी जंगली जानवर ने ? नहीं, नहीं, वे महान धनुर्धर हैं। वे शब्दवेधी विद्या से परिपूर्ण हैं । उन्होंने उस दिन वराह के पदचाप की मन्दध्वनि से साथधान होकर उस ध्वनि की दिशा में बाण छोड़ा ओर वह अदृश्य वराह मौत के मुंह में चला गया ।
चलो, कोई बात नहीं । मेरा मन कह रहा है कि वे सकुशल परसों लौट आएंगे ।
सगर्भा प्रियतमा आम्रपाली का चित्त प्रियतम के बिना उन्मना हो रहा था । स्त्रियों के लिए मातृत्व सहज होता है, पर उसमें प्रसन्नता और आनन्द बनाए रखना प्रियतम के बिना नहीं होता ।
सातवां दिन ।
आज आम्रपाली अत्यन्त प्रसन्न थी । उसकी काया का कण-कण आनन्द से सराबोर हो रहा था । उसका आनन तेजस्वी हो रहा था और आंखों की चमक मानो दो चन्द्रमाओं की प्रतीति करा रही थी ।
उसने मन ही मन सोचा, अभी-अभी प्रियतम आएंगे और मैं उन्हें मीठा उपालम्भ दूंगी और तब वे “।
और उसी समय परिचारिका माध्विका ने आम्रपाली के कक्ष में प्रवेश किया । आम्रपाली अपने प्रियतम के विचारों में खोयी हुई थी । पदचाप सुनकर उसके विचारों की श्रृंखला टूटी। अपने दरवाजे की ओर देखा । माध्विका ने कहा - "देवि ! महाराज आ गए। वे स्नानागार में गए हैं । अभी-अभी वे इस विशिष्ट कक्ष में आएंगे। जाते-जाते वे कह गए हैं कि देवी को यदि कष्ट न हो तो इस कक्ष में आ जाए और यदि न आ सके तो मैं वहीं चला आऊंगा ।