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१५२ अलबेली आम्रपाली निश्चल था। आवाज प्रचण्ड होती गयी और अचानक वह अंधकारमय मन्दिर प्रकाश से भर गया। देवी अपने मूल रूप में प्रगट हुई।
बिबिसार ने आंखें खोलीं। वह उठा और देवी को प्रणाम कर हाथ जोड़कर बैठ गया। देवी बोली-"वत्स ! मैं तेरी भक्ति से प्रसन्न हूं। तू मांग । तेरी मांग पूरी होगी।"
"माता ! मैं राह भटक गया हूं। मैं याचना करने नहीं आया। कुछ घटना घटी और मेरे पुण्य ने मुझे यहां ला पटका । मेरा सौभाग्य है कि मुझे माता के दर्शन हए। मेरा जन्म धन्य हुआ। मातेश्वरी ! मुझे पुरुषार्थ में विश्वास है । दूसरों के सहारे पलना, मैंने नहीं सीखा । पर मां ! तुम्हारा अनादर करना नहीं चाहता। मांग कुछ भी नहीं है। तुम्हारी प्रसन्नता ही मेरी प्रसन्नता है। मां ! तुम प्रसन्न हो, प्रसन्न रहो।" __ "वत्स ! नहीं ! तू नहीं मांगता, तेरी इच्छा है । मैं तुझे कुछ दूंगी । तू मेरे यहां से खाली हाथ नहीं जा सकेगा।"
"जैसी, कृपा मां!"
देवी ने उसे दो गुटिकाएं देते हुए कहा- 'ये दो अमूल्य गुटिकाएं हैं। यह लाल गुटिका अदृश्यकारिणी है। इसको मुंह में रखते ही व्यक्ति अदृश्य हो जाता है। यह नीली गुटिका विषापहारक है । कितना ही तीव्र विष क्यों न हो, इस गुटिका से वह शांत हो जाता है।"
बिबिसार की आंखों से हर्ष के आंसू निकल पड़े और उसने भावविभोर मुद्रा में मां का अभिवादन किया।
मां पद्मावती अदृश्य हो गयी।
वह गुटिकाओं को साथ ले आगे बढ़ा। जाते-जाते उसे बड़ी-बड़ी अट्रालिकाओं के शिखर दीख पड़े । उसका मन आश्वस्त हुआ। उसके पैरों में तेजी आ गयी।
भूख तीव्र थी। पर मन शांत था । वह चारों ओर देखता हुआ, नगर के प्रवेश-द्वार में प्रविष्ट हुआ। इधर-उधर देखा । कोई मनुष्य नहीं मिला। आगे बढ़ा, पर यह क्या, कहीं कोई मानव नहीं है । क्या यह देवनगरी है या राक्षस नगरी? नगर का निर्माण भव्य है। बड़े-बड़े बाजार, बड़ी-बड़ी दुकानें, चौड़े रास्ते, पर सब शून्य । नीरव को चीरता हुआ वह और आगे बढ़ा। वह राजभवन तक पहुंच गया। वहां भी कोई रक्षक नहीं था। वह अन्दर गया। उसने जोर से पुकारा-"कोई है अन्दर ?" ___कोई उत्तर नहीं आया। उसका कुतूहल बढ़ा और वह राजभवन की छठी मंजिल पर पहुंच गया। वहां उसने देखा कि एक कक्ष के बाहर सांकल लगी हुई है। उसके मन में जिज्ञासा हुई । उसने सांकल को एक ओर किया। द्वार को