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खोलने गई। उसने देखा नगरसेठ के वहां से रथ आया है और रथिक वहां दरवाजे पर खड़ा है।
सारसिका ने पूछा-'क्यों?' 'सेठानीजी आपको याद कर रही है।' 'बहिन तरंग तो कुशल है न?'
'मैंने बहिन तरंग को तो देखा नहीं। सेठानी की आज्ञा से मैं यहां आया हूं।'
'जरा ठहरो। मैं तो आने ही वाली थी।' कहकर सारसिका घर में गई। कुछ क्षणों पश्चात् मां की आज्ञा ले बाहर आई और रथ में बैठ गई।
नगरसेठ के घर पर प्रतिदिन सेठ और सेठानी प्रातः जल्दी उठकर प्रतिक्रमण कर रहे थे....... पुत्रवधुएं भी प्रातः कार्य कर रही थीं।
सेठानी ने तरंगलोला को न देखकर उसके खंड की ओर ऊपर गई। उसने सोचा, तरंगलोला कभी विलम्ब से नहीं उठती, आज उठने में विलम्ब कैसे हो गया? क्या ज्वर, सुस्ती या अन्य कुछ....? अरे! सारसिका भी नहीं उठी! वह तो बहुत नियमित है। इस प्रकार विचार करती-करती सेठानी सुनंदा पुत्री तरंगलोला के कक्ष के पास पहुंची.... द्वार बंद था...... उसने धक्का देकर द्वार खोला...... भीतर कोई नहीं था। तत्काल उसे याद आया...... कल दोनों छत पर गई थीं....... क्या अभी तक वहीं सो रही हैं? यह याद आते ही सेठानी छत पर गई...... छत पर कौन हो? दासी पहले ही दोनों शय्याएं छत से उठाकर नीचे ले चली थीं। छत साफ थी।
दोनों कहां गई?
बेचारी मां को ऐसी कल्पना कहां से हो कि वह जहां अपनी प्रिय पुत्री की खोज कर रही है वहीं वह अभी क्रूर डाकुओं के पंजों में फंस गई है...... अपने पूर्वभव के पति के साथ।
सुनंदा देवी धीरे-धीरे नीचे उतरी। उसने सोचा, संभव है दोनों सखियां जल्दी उठकर बाहर निकल गई हो....... इतना होने पर भी मां का मन कैसे माने? उसने तत्काल रथिक को सारसिका के घर जाने की आज्ञा दी और सारसिका को बुलाने का आदेश दिया।
कन्या के विषय में माता को अन्य कोई संशय होने का अवसर नहीं था.... क्योंकि कन्या संस्कारित थी...' अत्यंत लाड़-प्यार में पली-पुसी होने पर भी बड़ी विनीत और आज्ञाकारी थी।
सुनंदा ने सोचा संभव है तरंग सारसिका के घर चली गई हो! रथ आने के बाद सेठजी प्रातराश लेकर बैठे ही थे कि राजदरबार से उन्हें बुलावा आया और
पूर्वभव का अनुराग / १२७