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आया ही नहीं
अन्त में थककर वहां से निकल गई । '
'देख बेटा ! अब तो सारे बाजार भी बंद हो गए हैं और नगरसेठ का भवन भी बंद हो गया होगा। तू घर चल प्रातः वहां जाना।'
'किन्तु मेरी सखी प्रतीक्षा कर रही होगी । '
'इसकी कोई चिन्ता नहीं है। तू अभी अकेली वहां जाए, यह उचित नहीं होगा ।' पिताश्री ने कहा ।
सारसिका ने बात को उचित ढंग से रखा था, फिर भी पिता के साथ घर जाने के सिवाय दूसरा रास्ता नहीं था । 'अच्छा' कहकर वह पिता के साथ घर की ओर चल पड़ी। पिता ने चलते-चलते कहा- 'ऐसा कार्य तो दिन में होना चाहिए । प्रातः तू जाकर पद्मदेव को देखकर फिर अपनी सखी को बता देना ।'
सारसिका कुछ नहीं बोली। वह मन ही मन सोच रही थी सखी प्रतीक्षा में वहीं खड़ी होगी" वह अकुलाहट का अनुभव भी कर रही होगी परन्तु अब क्या हो ? उसके गृहत्याग की बात तो किसी के समक्ष नहीं की जा सकती।
सारसिका भारी हृदय से घर आई और मां के साथ कुछ बतिया कर शय्या पर जा सो गई। नींद कहां से आए ? प्रातः सेठानी मुझे और तरंग को न देखकर कितनी चिंता करेगी? और यह बात कब तक छुपाई जा सकेगी ? इससे तो अच्छा होता कि तरंगलोला वहां से लौट आती इस प्रकार के विचारों में डूबतीउतरती सारसिका शय्या पर करवटें बदलती रही। बहुत देर बाद वह निद्राधीन हुई । उसे यह ज्ञात नहीं था कि इस समय दोनों प्रेमी हृदय एक नौका में बैठकर यमुना के जल-प्रवाह पर अठखेलियां करते हुए प्रवास कर रहे हैं।
प्रातःकाल होते ही वह उठी। माता भी जाग गई थी। मां प्रातः काल के घर के कामों में लग गई थी। वह झाडू से मकान की सफाई में लग गई थी। सारसिका ने सोचा, अरे मेरे जैसी जवान लड़की घर में हो और मां को घर का सारा काम करना पड़े? नहीं नहीं "नगरसेठ की कन्या के प्रति ममता और प्रेम है तो क्या उसके समक्ष अपने कर्त्तव्य को भी भुला देना चाहिए? बेचारे भोले मां-बाप इस विषय में मुझे कुछ कहते नहीं संतान को जिस प्रकार सुख हो, उसी प्रकार करने में माता - पिता प्रसन्न रहते हैं ?
ये विचार आते ही सारसिका मां के पास दौड़ी और मां के हाथ से बुहारी लेकर बोली- 'मां ! यह सब आप क्यों करती हैं?'
'बेटी ! घर का काम तो घर के आदमी ही करेंगे ?'
'आप माला-जाप करें। मैं कुछ ही समय में सारा काम निपटा देती हूं।' यह कहकर सारसिका घर की सफाई में लग गई।
उसी समय मकान के दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी। सारसिका द्वार १२६ / पूर्वभव का अनुराग