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(9) हिपो कैम्पस (Hippocampus) (10) दैहिक तथा आन्तरिक संस्थान (Somatic and Visceral
System) जागृत अवस्था हो या निद्रावस्था शरीर के प्रत्येक अंग सक्रिय रहते हैं। कोई भी क्रिया किसी भी अवस्था में रुकती नहीं है। इस प्रक्रिया को क्रियालय कहते हैं। अनेक प्रयोगों से प्रमाणित हो चुका है कि विभिन्न शारीरिक आवश्यकताओं,अभिप्रेरणाओं का सम्बन्ध जीव की शारीरिक क्रियाओं से होता है।
शारीरिक क्रियाओं और संवेग में भी परस्पर संबंध है। इस संदर्भ में चूहों पर प्रयोग कर निष्कर्ष निकाला गया कि चूहे को भोजन के लिये जब स्वतंत्र रूप से छोड़ दिया जाता है तो उसकी भोजन क्रिया और आंगिक क्रियाओं में लयात्मक तालमेल बना रहता है। इस प्रकार आंगिक क्रियाओं का सम्बन्ध जीव की आवश्यकताओं,
अभिप्रेरणाओं और उन आधारों से है जिनसे वह अपने व्यावहारिक संतुलन को बनाये रखता है। आवेगों के कारण शारीरिक क्रियाओं में रासायनिक परिवर्तन होता है।
शरीर में होने वाली क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं के कारण अनेक प्रकार के परिवर्तन भी दृष्टि गोचर होते हैं। जैनदर्शन की दृष्टि से इन ग्रंथियों के स्राव भी मूल कारण नहीं है। मूल कारण कार्मण शरीर है। कार्मण शरीर सूक्ष्म है। ग्रंथियों के स्त्राव कर्म-शरीर की तुलना में स्थूल है।
ग्रंथि-विज्ञान और कर्म-विज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन दोनों में काफी साम्यता प्रस्तुत करता है। ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म का उदय एवं क्षयोपशम ज्ञान के ह्रास-विकास में निमित्त बनता है। पीनियल तथा पिच्युटरी ग्रंथि के असंतुलित स्राव को उदय और संतुलित अवस्था को क्षयोपशम की संज्ञा दी जा सकती है।
थाईराइड का सम्बन्ध शरीर की रचना से है। कर्म-सिद्धांत में नाम-कर्म का सम्बन्ध भी शरीर से हैं। गोनाड्, एड्रीनल-ग्रंथि मोहनीय कर्म की प्रकृत्तियों के उदय से निकटता रखती है। मोहनीयकर्म के उपभेद-काम, क्रोध, भय, लोभ आदि संवेगों के उदय से भावों में परिवर्तन होता है। ग्रंथि-विज्ञान में भी स्रावों से मानसिक एवं दैहिक परिवर्तन होता है। शरीर के क्रियातंत्र, विचारतंत्र, नाड़ीतंत्र का परिशोधन कर ग्रंथियों के स्रावों को बदला जा सकता हैं। वैज्ञानिक कारण- कार्य सिद्धांत की तरह जैन दर्शन में भी कर्म सिद्धांत के अन्तर्गत क्रिया और प्रतिक्रिया के अटूट सम्बन्धों की समुचित व्याख्या है।
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अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया