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________________ किन्तु अनुत्थान आदि के द्वारा नहीं। इस प्रकार कर्म- मुक्ति भी बिना प्रयत्न या क्रिया संभव नहीं है। कर्ममुक्ति की विविध क्रियाएं ही निर्जरा के विभिन्न प्रकारों के रूप में परिगणित हैं। बाह्य निर्जरा का प्रयोजन 1. संयम प्राप्ति, राग नाश, शास्त्राभ्यास, कमल-विशोधन | 2. वात पित्त - श्लेष्म (कफ) आदि दोषों का उपशमन, ज्ञान-ध्यान आदि सिद्धि, संयम में सजगता । 3. भोजन सम्बन्धी इच्छाओं पर नियंत्रण, भोजन सम्बन्धी आशा पर अंकुश 4. निद्रा विजय, इन्द्रिय - निग्रह, स्वाध्याय, ध्यान की सिद्धि 5. ब्रह्मचर्य - सिद्धि, बाधाओं से मुक्ति, स्वाध्याय, ध्यान की सिद्धि 6. शारीरिक कष्ट सहिष्णुता का अभ्यास, शारीरिक सुख की वाञ्छा से मुक्ति तथा जैन धर्म की प्रभावना। ' 123 आभ्यन्तर निर्जरा का प्रयोजन - 1. भाव शुद्धि, शल्य मुक्ति, चंचलता का अभाव, धार्मिक दृढ़ता, परिणाम 12 प्रायश्चित के 2. ज्ञान लाभ, आचार शुद्धि, सम्यग् आराधना, विनय के परिणाम 125 3. चित्त समाधि, ग्लानि का अभाव, चित्त समाधि का लाभ, प्रवचन वात्सल्य, वैयावृत्य के परिणाम। 126 4. प्रज्ञा जागरण, संदेह - निवारण, कुविचार विशुद्धि, अध्यवसाय विशुद्धि, स्वाध्याय के परिणाम । 127 5. असीम का साक्षात्कार, सविकल्प से निर्विकल्प की ओर, मानसिक दुःखों से बाधित न होना आनन्द की उपलब्धि, कष्टों से बाधित न होना, ध्यान के परिणाम । 6. निर्ममत्व, दोषों का उच्छेद, निर्भयता, जीवन के प्रति अनासक्ति, मोक्ष - मार्ग में तत्परता आदि व्युत्सर्ग के परिणाम | 12 128 (8) निर्जरा और निर्जरा की क्रिया - निर्जरा और निर्जरा की क्रिया (करणी) क्रिया और अन्तक्रिया 257
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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