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108. सर्वार्थसिद्धि; 6/14/332 - उदयो: विपाक ।
109. जैन सिद्धांत दीपिका; 4/5 नियत कालात् प्राक् उदयः उदीरणा ।
110. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, प्रथम भाग, पृ.
111. भगवती; 1 / 140
111. (ख) आचारांग, 1/5
112. पंच संग्रह; गा. 253
113. जैन सिद्धांत दीपिका ; पृ 68 - कर्मणा स्थित्यनुभागवृद्धिः उद्वर्तना 114. गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, जीव तत्त्व-प्रदीपिका टीका; 438, 591 115. जैन सिद्धांत दीपिका; 4/5 स्थित्यनुभागहानि अपवर्तना । 116. धवला; 10/4-2, 4/21, 53/2
117. जैन सिद्धांत दीपिका; पृ. 74
सजातीय प्रकृतिनां मिथः परिवर्तनम् संक्रमणः ।
118. जैन सिद्धांत दीपिका; 4/5, समस्त करणायोग्यत्वम् निकाचना ।
119. जैन दर्शन मनन और मीमांसा; पृ. 298-299
120. मनोविज्ञान और शिक्षा, डॉ. सरयूप्रसाद चौबे, पांचवां संस्करण 1960, पृ. 183
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121. दसवैकालिक; 8/37
कोहो पीइं पणासे, माणो विणय नासणो । माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सव्व विणासणो ॥
122. उत्तराध्ययन; 29-3
धम्म सद्धाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? धम्मसद्धाणं सायासोक्खेसु रज्जमाणे विरज्जइ । अगारधम्मं च णं चयइ अणगारे णं जीवे सारीर-माणसाणं दुक्खाणं छेयणभेयण-संजोगाईणं वोच्छेयं करेइ अव्वाबाहं च सुहं निव्वत्ते ||
123. कर्मवाद; पृ. 220
124. स्थानांग; 4 / 287
222
125. अंगुत्तर निकाय; 4/232-233
126. जैन भारती, दिसम्बर अंक 12; सन् 2000
127. भगवती; 5/118
128. विशेषावश्यक भाष्य; गा. 1939
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया