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पंचम अध्याय क्रिया और अन्तक्रिया
बन्धन और मुक्ति भारतीय दर्शनों का मुख्य प्रतिपाद्य विषय रहा है। जैन दर्शन में बन्धन का हेतु आश्रव तथा मुक्ति का साधन संवर और निर्जरा को माना गया हैं। अन्तक्रिया संवर और निर्जरा की विशिष्ट प्रक्रिया है। इसका प्रयोग मुक्ति से पूर्व किया जाता है। इस अध्याय में बन्धन और मुक्ति में क्रिया की भूमिका को योग, आश्रव, संवर, निर्जरा और अन्तक्रिया के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट किया गया है। क्रिया और योग
एक शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। योग शब्द भी इसका अपवाद नहीं है। जैन दर्शन में क्रिया के लिए योग शब्द का व्यवहार होता रहा है। पातञ्जल योग में योग शब्द समाधि के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार योग क्रिया का वाचक भी है और समाधि का भी। युज् धातु जब घञ् प्रत्यय से संपृक्त होती है तब योग शब्द निष्पन्न होता है। महर्षि पतञ्जली ने चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहा है।' बौद्धों ने योग का अर्थ समाधि किया है। ऋग्वेद में योग शब्द का अनेक स्थलों पर व्यवहार हुआ है किन्तु पातञ्जल योग की तरह ध्यान-समाधि के रूप में नहीं, जोड़ने अर्थ में हुआ है। इस प्रकार योग शब्द के अनेक अर्थ हैं। उनमें योग शब्द के संयोजित करना और मन की समाधि ये दो अर्थ अधिक प्रसिद्ध हैं। वर्तमान युग में योग शब्द का व्यवहार 'योगा' के रूप में होता है जो विशेषतः आसन और प्राणायाम के प्रयोग के अर्थ में प्रयुक्त है। योग की परिभाषा
जैन आगम साहित्य में योग शब्द का व्यवहार वैदिक एवं बौद्धों से भिन्न अर्थ में किया गया है। जैन सिद्धान्त दीपिका में योग को परिभाषित करते हुए आचार्य तुलसी
क्रिया और अन्तक्रिया
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