________________
2. दर्शनावरणीय
स्व-संवेदन को दर्शन कहते हैं। दर्शन शक्ति में बाधक कर्म - पुद्गल दर्शनावरणीय कर्म कहलाते हैं। ज्ञान से पूर्व होने वाला वस्तु तत्त्व का निर्विकल्प बोध - दर्शन कहलाता है। उसका आवारक दर्शनावरण कहलाता है। दर्शनावरणीय कर्म - बंध की भूत क्रियाएं ज्ञानावरण कर्म के समान ही हैं । अन्तर इतना ही है कि उनमें ज्ञान के स्थान पर दर्शन शब्द का प्रयोग होता है। दर्शनावरण के नौ प्रकार हैं
1. चक्षु दर्शनावरण- नेत्र शक्ति का अवरोध |
2. अचक्षु दर्शनावरण - नेत्र के अतिरिक्त शेष इन्द्रियों की अनुभव शक्ति का अवरोध |
3. अवधि दर्शनावरण- अतीन्द्रिय दर्शन की उपलब्धि में बाधा।
4. केवल दर्शनावरण- परिपूर्ण दर्शन की उपलब्धि में व्यवधान ।
5. निद्रा - सामान्य निद्रा (सहज जागृत होने वाली निद्रा)
6. निद्रा-निद्रा- गहरी निद्रा, नींद से जागना कठिन
7. प्रचला - बैठे-बैठे आने वाली निद्रा ।
8. प्रचलाप्रचला - चलते-फिरते आने वाली निद्रा ।
9. स्त्यानर्द्धि - जिस निद्रा में बड़े-बड़े बल साध्य कार्य हो जाते हैं।
3. वेदनीय
अनुकूल - प्रतिकूल विषयों से उत्पन्न सुख-दुःख रूप में जिसका अनुभव हो, वह वेदनीय कर्म है। यद्यपि वेदन सभी कर्मों का होता है किन्तु सुख - दुःख का वेदन इसी कर्म से होता है। इसके दो प्रकार हैं - सातवेदनीय, असातवेदनीय। ।
सातवेदनीय कर्म - जिसके परिणाम स्वरूप सुख की संवेदना होती है। भौतिक सुखों की उपलब्धि होती है । अर्थात् जो शारीरिक और मानसिक सुख का हेतु है वही सातवेदनीय कर्म कहलाता है। नवपदार्थ ज्ञानसार में सातवेदनीय कर्म बंध की हेतुभूत दस क्रियाएं उल्लेखित है- 79
162
० पृथ्वी, पानी आदि के जीवों पर अनुकम्पा करना। ० वनस्पति, वृक्ष, लतादि पर अनुकम्पा करना ।
अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया