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० द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों पर दया करना। ० पंचेन्द्रिय पशुओं एवं मनुष्यों पर अनुकम्पा करना। ० किसी भी प्राणी को किसी प्रकार से दुःख न देना। ० किसी भी प्राणी को चिन्ता एवं भय उत्पन्न हो ऐसा कार्य न करना। ० किसी भी प्राणी को शोकाकुल नहीं बनाना। ० किसी भी प्राणी को रुदन नहीं कराना। ० किसी भी प्राणी को नहीं मारना। ० किसी भी प्राणी को प्रताड़ित नहीं कराना।
कर्म ग्रंथ में सातवेदनीय कर्म के बंधन का कारण गुरूभक्ति, क्षमा, करूणा, व्रतपालन, योग-साधना, कषाय-विजय, दान और दृढ़श्रद्धा माना गया है। तत्त्वार्थ सूत्रकार का भी यही दृष्टिकोण है।81
असात वेदनीय कर्म- इस कर्म के परिणाम स्वरूप विषय की प्रतिकूलता एवं शारीरिक-मानसिक दुःख प्राप्त होता है। वेदनीय कर्म के हेतुभूत क्रियाएं बारह प्रकार की हैं, जैसे
(1) प्राण, भूत-जीव सत्व को दुःख देना। (2) दीन बनाना। (3) शरीर को हानि पहुंचाने वाला शोक पैदा करना। (4) रुलाना। (5) लाठी आदि से प्रहार करना। (6) परितापित करना।
ये छह क्रियाएं मंदता और तीव्रता के आधार पर बारह प्रकार की हो जाती हैं। इससे विपरीत सात वेदनीय कर्म बन्ध की हेतुभूत क्रियाएं हैं। 4. मोहनीय कर्म
आत्मा को मूढ़ बनाने वाले कर्म पुद्गल मोहनीय कर्म कहलाते हैं। मदिरा सेवन से जैसे विवेक शक्ति लुप्त हो जाती है वैसे ही जिन कर्म -पुद्गलों से आत्मा की सत्
क्रिया और कर्म - सिद्धांत
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