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स्थानांग के टीकाकार श्री अभयदेव ने अपनी टीका में नवविध पुण्य को बताने के लिये गाथा उद्धृत की है
अन्नं पानं च वस्त्रं च आलय: शयनासनम्। शुश्रूषा वंदनं तुष्टि : पुण्यं नवविधं स्मृतम् ।। 53ख
इसमें छह तो वे ही हैं जो मूल स्थानांग में उल्लिखित हैं किन्तु मन, वचन और काया के स्थान पर यहां आसन पुण्य, शुश्रूषा पुण्य और तुष्टि पुण्य है। नवविध पुण्य की यह परम्परा आगमिक नहीं है।
दिगम्बर ग्रंथों में प्रतिग्रहण, उच्च स्थान, पाद प्रक्षालन, अर्चन, प्रणाम, मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि, और एषणा शुद्धि इन नौ को पुण्य कहा है। 54 (क). इसका अर्थ यह नहीं कि पुण्य बंधन के हेतु इतने ही हैं। हेतु अनेक हैं, यहां कुछ का उल्लेख किया गया है। पुण्य के अनेक अवान्तर भेद भी हैं। प्रत्येक भेद की अपनी विशिष्ट प्रकृति है, वे स्वभावानुसार फल देते है। कर्मों का यह फल देना ही उनका भोग है। पुण्य कर्म अपने अवान्तर भेदों की विवक्षा से 42 प्रकार का है। 54 (ख)
बौद्ध आचार - दर्शन में भी पुण्य के दानात्मक स्वरूप की चर्चा के प्रसंग में संयुक्त - निकाय में कहा गया है- अन्न, पान, वस्त्र, शय्या, आसन, एवं चादर के दानी पण्डित पुरूष में पुण्य की धाराएं आ गिरती हैं। 54 (ग)
पुण्य का हेतु
एकत्व की विवक्षा से प्रतिपादन करें तो कह सकते है, पुण्य बंधन का एक मात्र निमित्त है - सत्प्रवृत्ति, सदनुष्ठा क्रिया । कुछ परम्पराएं पुण्य का बंधन स्वतंत्र मानती हैं उनके अभिमत से मिथ्यात्वी के धर्म नहीं, पर पुण्य का बंधन होता है। तत्त्व चिन्तन की कसौटी पर यह मान्यता खरी नहीं उतरती । यद्यपि मिथ्यात्वी के संवर धर्म नहीं होता पर निर्जरा धर्म अवश्य होता है। वही उसकी आन्तरिक शुद्धि का निमित्त है अन्यथा मिथ्यात्वी लिये सम्यक्त्व बनना संभव ही नहीं होगा।
ईर्यापथिक क्रिया एकान्ततः पुण्य की क्रिया है । साम्परायिकी क्रिया का सम्बन्ध पुण्य-पाप दोनों से है। दसवें गुणस्थान तक साम्परायिकी क्रिया से पुण्य - पाप दोनों का बंध होता है। आगे के गुणस्थानों में केवल पुण्य - बंध होता है क्योंकि वहां ईर्यापथिक क्रिया है। चौदहवां गुणस्थान अबंध का है।
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अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया