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प्रश्न होता है, साम्परायिकी क्रिया पाप है- यह प्रत्यक्ष है। आगम में अनेक स्थलों पर इसके साक्ष्य उपलब्ध हैं किन्तु वह पुण्य रूप भी है, इसका आधार क्या है ?
प्रज्ञापना के तेइसवें पद के अनुसार ईर्यापथिकी और साम्परायिकी - इन दोनों क्रियाओं का सातवेदनीय में समाहार होता है। उक्त न्याय से साम्परायिकी क्रिया पुण्य रूप भी है। दूसरा इस प्रश्न के उत्तर में जयाचार्य का कहना है कि भगवती शतक में साम्परायिकी क्रिया को पाप कहा है। पहले से दसवें गुणस्थान तक अशुभयोग आश्रव है । यह साम्परायिकी क्रिया से होने वाला पाप का बंध है। शुभयोग से जो पुण्य - बंध होता है, उसे पुण्य - सम्पराय कहा जाता है। इस प्रकार साम्परायिकी क्रिया पुण्य और पाप दोनों हैं।
क्रिया और पाप
साधना के क्षेत्र में पुण्य बाधक तत्त्व है वैसे ही पाप भी। ये दोनों आत्मा के विजातीय तत्त्व हैं और इसलिए आत्मा की परतंत्रता के कारण हैं।
पाप की परिभाषा
जो आत्मा का पतन करे, जहां आत्मानंद का शोषण हो, आत्म-शक्तियों का ह्रास हो, वह पाप है। 56 सर्वार्थसिद्धि में कहा है- जो आत्मा को शुभ भावों से वंचित रखता है, अशुभफल देता है, वह पाप है। 57 अशुभ कर्मों के उदय को पाप कहते हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, ये चार कर्म एकान्ततः अशुभ है। शेष चार कर्म शुभ - अशुभ दोनों हैं। अशुभ कर्मों की उदयावस्था पाप है। उपचार से पाप कर्म-बंधन के हेतु को भी पाप कहते हैं। वस्तुत: ये पाप स्थान है। पाप मुख्यतः अठारह हैं
1. प्राणातिपात 7. मान
2.
मृषावाद
8. माया
3. अदत्तादान
9. लोभ
4. मैथुन
5.
6.
13.
14. पैशुन्य
15.
16.
17.
18.
जिसके उदय से आत्मा अशुभ क्रिया अथवा अशुभ प्रवृत्ति के लिए प्रेरित होती है, वह मोहनीय कर्म भी पाप कहलाता है । उदाहरण के लिए- जिस मोहोदय से
क्रिया और कर्म - सिद्धांत
परिग्रह
क्रोध
10. राग
11. द्वेष
12. कलह
अभ्याख्यान
पर - परिवाद
रति अरति
-
माया - मृषा मिथ्यादर्शन शल्य
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