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वर्णन द्रव्य लेश्या के आधार पर है। इसलिये तेरह सागर की आयु वाले किल्विषिक देव एकान्त शुक्ल लेशी हैं, वहीं एकान्त मिथ्यादृष्टि भी हैं। प्रज्ञापना में ताराओं को स्थिर लेशी माना है। मनुष्य और तिर्यञ्च में अस्थिर लेश्याएं है। पृथ्वीकाय में कृष्ण, नील, कापोत तीन अप्रशस्त लेश्याएं हैं।
प्रश्न होता है- ये द्रव्य लेश्या है या भावलेश्या ? क्योंकि स्फटिक, मणि, हीरा, मोती आदि रत्नों में श्वेत प्रभा होती है। यदि इनमें भाव लेश्या माने और उसे अप्रशस्त माने तो प्रश्न होता है कि पृथ्वीकाय से निकलकर कितने ही जीव केवली बन जाते हैं। पृथ्वीकाय के उस जीव ने अप्रशस्त भाव लेश्या में केवली के आयुष्य का बंधन कैसे किया ?
भवनपति, वाणव्यंतर देव में चार लेश्याएं हैं- कृष्ण, नील, कापोत और तेजो लेश्या । क्या कृष्ण लेश्या में आयु पूर्ण कर प्राणी असुरादि में पैदा हो सकता है ? यह चिन्तनीय प्रश्न है। द्रव्य लेश्या, भाव लेश्या की स्पष्ट भेद रेखा आगमों में नहीं मिलती किन्तु इतना निश्चित है कि लेश्या का शुभ-अशुभ होना आत्म-परिणामों की प्रशस्तता
और अप्रशस्तता पर निर्भर करता है। गति और लेश्या
गतियां चार हैं- नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्य गति, देवगति। अनादि संसार यात्रा के ये चार पड़ाव हैं। प्रश्न है कि इनमें जीव पैदा क्यों होता है ?, एक ही गति में पुनः पुन: उत्पन्न होता है या उत्क्रमण-अपक्रमण भी संभव है ? कारण की मीमांसा में मुख्य हेतु है-लेश्या। छह लेश्याओं के साथ गति की नियामकता नहीं है कि अमुक लेश्या वाला अमुक गति में ही जायेगा।
चारों गतियों में किसी एक गति का आयुष्य बंध सकता है। कुछ लेश्या का स्थान अवश्य नियामक है। जैसे कृष्ण लेश्या नरक का कारण है। ज्योतिष्क देवों में तेजो लेश्या ही होती है, क्योंकि वहां भावों की क्लिष्टता नहीं है। चारों गतियों में सभी लेश्याओं का अस्तित्व है।
अप्रशस्त और प्रशस्त लेश्याओं के आधार पर प्राणी की मानसिक दशा और आचरण का सुव्यवस्थित चित्रण उत्तराध्ययन के चौतीसवें अध्ययन में मिलता है। वहां लेश्या के वर्ण गंध आदि गुणधर्मों पर विशेष प्रकाश डाला गया है जिसे निम्नांकित चार्ट से सरलता से समझा जा सकता हैक्रिया और कर्म - सिद्धांत
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