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95. पण्णवणा; पद 22 सू.1622 टीका 96. भगवती वृत्ति; 1/33,
- आरंभो-जीवोपघात: उपद्रवणमित्यर्थः सामान्येनवाश्रवद्वार प्रवृत्तिः। 97. भगवती भाष्य; 1/33-34
"असुभं जोगं पडुच्च आयारंभा वि।" ...
"अविरतिं पडुच्च आयारंभा वि।" 98. आचारांग चूर्णि; पृ.190 99. स्थानांग, 2/60 टीका आरम्भणमारम्भः तत्र भवा आरम्भिकी। 100.श्लोक वार्तिक; 6/5 पृ.445 गा.
छेदनादि क्रियासक्त चित्तत्वं स्वस्य यद्भवते।
परेण तत्कृतौ हर्ष सेहारम्भ क्रिया मता। 101.आचारांग भाष्य; 1/6-7 102.आयारो; 1/11-12 103.स्थानांग वृत्ति पत्र; 38 104.चूर्णि; पृ.175 105.वृत्तिपत्र; 177 106.स्थानांगवृत्ति; पत्र 38 107.तत्त्वार्थवार्तिक; 6/5 108.भगवई; 1/2/71 की टीका 109.भगवई, खण्ड; 2, 5/7/181-182
नेरइया णं भंते ! किं सारंभा सपरिग्गहा ? उदाहु - अणारंभा अपरिग्गहा
गोयमा ! नेरइया सारंभा, सपरिगहा, नो अणारंभा, अपरिग्गहा। 110.भगवतीभाष्य, 5/182-190
सरीरा परिग्गहिया भवंति, कम्मा परिग्गहिया भवंति,
सचित्ताचित्त मीसयाइ, दव्वाइं परिग्गहियाई भवंति। 111.स्थानांग; 3/94-96 112. भगवई वृत्ति; 5/187
क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप
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