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देते हैं । वे उसे सात बार कायोत्सर्ग कराते हैं अर्थात् लोगस्स का ध्यान कराते हैं । फिर वह शिष्य गुरु द्वारा समर्पित निषद्यायुक्त होकर गुरु को तीन बार प्रदक्षिणा सहित वंदना करता है और गुरु के दायीं ओर उच्चासन पर निषद्या कर बैठ जाता है। तब गुरु शुभ लग्न और शुभ बेला में गुरु परम्परा से आगत मंत्रपदों का तीन बार उच्चारण करते हैं। तदन्तर गुरु तीन मुष्ठि अक्षत शिष्य के हाथ में देते हैं । शिष्य उन्हें विनम्रता से ग्रहण करता है । गुरु उसका नामकरण कर आसन से उठ . जाते हैं। आचार्य पदाभिषेक शिष्य अपने आसन पर ही बैठा रहता हैं। गुरु समस्त संघ के साथ उनको वंदन करते हैं । यह विधि तुल्य गुणों के ख्यापनार्थ की जाती है । फिर गुरु उन्हें व्याख्यान देने के लिए कहते हैं। अपने आसन पर स्थित वे अभिनव आचार्य परिषद के अनुरूप नंदी आदि का व्याख्यान करते हैं । व्याख्यान की संपन्नता पर समस्त संघ उनको वंदना करता है। तब वे अभिनव आचार्य अपने आसन से उठ जाते हैं। गुरु उस आसन पर बैठकर अनुशासन देते हुए कहते हैं - शिष्य तुम भाग्यशाली हो । आचार्य का यह गौरवशाली पद तुमने पाया है । प्राचीनकाल में गौतम सुधर्मा आदि विशिष्ट मुनियों ने इस पद का गौरव बढ़ाया है। भद्र! धन्य व्यक्ति ही इसे प्राप्त कर सकते हैं। जो मुनि सांसारिक लीलाओं से छुटकारा पाना चाहते हैं, वे इस शासन की शरण में आते हैं । तुम उन सबकी सारणा-वारणा करना और उन्हें संसार सागर से पार लगा देना । तुम यावज्जीवन जिनेश्वर देव की आज्ञा का पालन करते रहना और अपने आश्रित चतुर्विध धर्मसंघ को संसार से पार लगाते रहना ।
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इस अनुशिष्टि के पश्चात अभिनव आचार्य गुरु को वंदना करते हैं और विभिन्न विधियां संपन्न कर सात बार खमासमणो पाठ का उच्चारण कर गुरु के पास बैठ जाते हैं । साध्वियां नये आचार्य को वंदना करती हैं । अभिनव आचार्य संघ को शिक्षा देते हैं ।
लोगस्स - आध्यात्मिक पदाभिषेक
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यद्यपि शब्दों की शक्ति असीम है पर वे असीम भाव बोध का प्रतिनिधित्व करते हैं । अपरिवर्तनशील अक्षर तत्त्व का साक्षात्कार करने के लिए अन्तरात्मा का जागरण आवश्यक है। श्री रामकृष्ण परमहंस ने इसकी तुलना मोती बनने की प्रक्रिया से की है । प्रचलित मान्यतानुसार घोंघा स्वाति नक्षत्र के उदय होने तक प्रतीक्षा करता है। यदि उस समय वर्षा होती है तो घोंघा अपनी सीप को खोलकर उसका जल ग्रहण कर लेता है । फिर वह समुद्रतल में गोता लगाकर महिनों तक वहां पड़ा रहता है, जब तक वह जल - बिंदु सुन्दर मोती में परिणत नहीं हो जाता
लोगस्स - आध्यात्मिक पदाभिषेक / ६६