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अभिव्यक्त करती है । 'लक्षणा' शब्द की वह शक्ति है जो अभिप्रेत अर्थ का बोध कराती है और सामान्य अर्थ से भिन्न विशेष अर्थ का वाचक बनती है ।
सामान्यतः अभिषेक शब्द का अर्थ 'अभितः सेचनम्' अर्थात् सब ओर से सिंचन करना है । प्रस्तुत शब्द अभि उपसर्ग पूर्वक 'सिच्' धातु से भाव अर्थ में घञ् प्रत्यय से निष्पन्न होता है। जैन परम्परा में यह शब्द प्रस्तुत अर्थ के साथ-साथ नये परिवेश और नई अभिधा में भी प्रयुक्त हुआ है। इसका वहां अर्थ क्रिया परक न होकर व्यक्ति पर किया गया है। इसलिए यह शब्द जैन परम्परा में विशेष अर्थ का वाचक है।
आगमों में अभिषेक का अर्थ
१. जैन आगमों के अनुसार सूत्रागम, अर्थागम और तदुभयागम से परिसंपन्न आचार्य पद के योग्य होता है वह मुनि अभिषेक कहलाता है ।
२. जो मुनि आचार्य पद पर अभिषिक्त होता है उसे अभिषेक कहा जाता है । ३. जो श्रमणी आचार्य स्थानीय प्रवर्तिनी - पद के योग्य होती है उसे अभिषेक कहा जाता है ।
प्रस्तुत अर्थों के संदर्भ में यह कहना भी असंगत नहीं है कि व्यक्ति को अभिषेक मानकर उपचार से उसके लिए किये जाने वाले क्रिया-कलापों को भी अभिषेक कहा जा सकता है।
आचार्य पदाभिषेक: प्राचीन विधि
प्राचीन परम्परा में आचार्य पद पर अभिषिक्त होने वाले शिष्य को अनेक परीक्षणों से गुजरना होता था । समय-समय पर आचार्य उसके बुद्धि-बल, संकल्प-बल, मनोबल, साहस, धैर्य, विश्वसनीयता, संघनिष्ठा, समर्पण आदि का विविध युक्तियों से परीक्षण करते रहते थे। जो शिष्य इस कसौटी में खरा उतर जाता, वह आचार्य के हृदय में स्थान बना लेता । आचार्य उसे सब प्रकार से योग्य जानकर प्रशस्त तिथि, प्रशस्त नक्षत्र, प्रशस्त मुहूर्त आदि देखकर प्रशस्त क्षेत्र में आचार्यपदाभिषेक करने का निर्णय लेते। आचार्य प्राभातिक काल में स्वाध्याय आदि करके चतुर्विध धर्मसंघ के सामने इस विधि को संपन्न करते हैं
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सर्वप्रथम शिष्य को २७ श्वासोच्छ्वास ( एक लोगस्स) का कायोत्सर्ग कराते हैं फिर आचार्य स्वयं अस्खलित वाणी से नन्दी सूत्र का वाचन करते हैं । शिष्य हाथ जोड़कर उसे सुनता है । उसका संवेग निरन्तर बढ़ता जाता है । फिर वह कहता है- भंते! मैं आपका अनुशासन सुनना चाहता हूँ । आचार्य उसको अनुशासन
६८ / लोगस्स - एक साधना - २