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है। इसी प्रकार भक्त का हृदय सत्य के प्रति उन्मुक्त होना चाहिए और गुरु से आध्यात्मिक उपदेश प्राप्त करने के बाद एक निष्ठ उत्साह के साथ उनकी तब तक आराधना करनी चाहिए जब तक आध्यात्मिक अनुभूति रूप मोती का निर्माण नहीं हो जाता। ब्रह्मज्ञ गुरु आध्यात्मिक दीक्षा द्वारा शिष्य में ऐसी चेतना का जागरण करते हैं। गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी ने लोगस्स में अन्तर्निहित मंत्राक्षर पद्यों द्वारा आचार्य महाप्रज्ञ का आध्यात्मिक पदाभिषेक कर उनमें अपने ऊर्जा स्पन्दनों का संचार किया। तेरापंथ की आचार्य परम्परा में यह पहला प्रसंग था। जैन परम्परा में भी ऐसा प्रसंग जानने को नहीं मिला कि एक समर्थ आचार्य ने अपने आचार्य पद का विसर्जन कर अपने शिष्य में आचार्य पद की प्रतिष्ठा की हो। अतएव गुरुदेव श्री तुलसी ने यह आध्यात्मिक अभिषेक तिलक कर एक अभिनव, अलौकिक परम्परा का सृजन किया। इस आध्यात्मिक अभिषेक तिलक के तीन आयाम थे। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी वंदन मुद्रा में सहज शांत स्थितप्रज्ञ भाव में बैठ गये। १. गुरुदेव ने अपना अंगुष्ठ श्री महाप्रज्ञ के दर्शन-केन्द्र (दोनों भृकुटियों के
मध्य) पर टिकाया और 'आइच्चेसु अहियं पयासयरा सिद्धा सिद्धिं मम
दिसंतु' मंत्र का तीन बार उच्चारण किया। २. गुरुदेव श्री तुलसी ने उसी शक्तिशाली अंगुष्ठ को ज्योति केन्द्र (ललाट का
मध्य भाग) पर रखा और 'चंदेसु निम्मलयरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु' मंत्र
को तीन बार दोहराया। ३. तीसरी आवृत्ति में गुरुदेव तुलसी ने अपना अंगुष्ठ श्री महाप्रज्ञजी के
शांति-केन्द्र (मस्तिष्क का अग्र भाग) पर रखा और ‘सागरवरगंभीरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु' का पाठ तीन बार सम्मुचारित किया।
आध्यात्मिक अभिषेक के साथ गुरुदेव तुलसी ने अपना वरदहस्त श्री महाप्रज्ञ के मस्तक पर टिकाया और 'आरोग्य बोहि लाभं समाहिवरमुत्तमं दितु' तीन बार मंत्रोच्चारण किया। उसके बाद शरण सूत्र के मांगलिक उच्चारण के साथ आध्यात्मिक अभिषेक तिलक अनुष्ठान संपन्न हुआ। निष्कर्ष
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी एक ऐसे महामनस्वी, महातपस्वी, महायशस्वी आचार्य थे जिनकी वाणी में ओज और आँखों में अनंत की खोज थी। उनकी पारदर्शी प्रज्ञा ने लोगस्स के शक्तिशाली मंत्रों का आध्यात्मिक पदाभिषेक कर अतीन्द्रिय चेतना संपन्न आचार्य महाप्रज्ञ में अपनी
७० / लोगस्स-एक साधना-२