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महाप्रज्ञजी ने लोगस्स के अन्तिम पद्य की निम्नोक्त विधि को नवरात्र आध्यात्मिक अनुष्ठान के नाम से निर्मित किया है जो अत्यन्त ही शक्तिशाली और तेजस्वी प्रयोग है
प्रयोग विधि
चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा । सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥ (पद्य का पाठ पांच बार )
• चंदेसु निम्मलयरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु । (तेरह बार )
• आइच्चेसु अहियं पयासयरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु । (तेरह बार)
सागर वर गंभीरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ।
(तेरह बार)
आरोग्गबोहि लाभं समाहिवरमुत्तमं दिंतु । (तेरह बार )
• चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा । सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥
ॐ ह्रीं क्लीं क्ष्वीं धम्मो मंगल मुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥ १ ॥
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जहा दुमस्स पुफ्फेसु, भमरो आवियई रसं । नय पुप्फं किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं ॥२॥ एमेए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो । विहंगमा व पुफ्फेसु, दाणभत्तेसणे रया ॥३॥ वयं च वित्तिं लब्भामो, न य कोई उवहम्मई । अहागड़ेसु रीयंति, पुप्फेसु भमरा जहा ॥४॥ महुकारसमाबुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया । नाणापिंडरया दंता, तेण वुच्चंति साहुणो ॥५॥ (उपरोक्त पांचों पद्यों को युगपत् ५ बार बोलें) मुमुक्षु साधक चिन्मय लक्ष्य के दर्पण में अपनी कमजोरियों को भी झांकता है और विशिष्टताओं को भी । आत्मा की शुद्ध अर्हताओं का प्रकटीकरण भीतरी
६४ / लोगस्स - एक साधना-२