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________________ पुरुषार्थ से ही संभव है। साधना का उद्देश्य है अहं भाव को विसर्जित कर अर्ह भाव को प्रकट करना। लोगस्स-स्तव आत्मा रूपी तिजोरी के ताले को खोलने के लिए चाबी के समान है अर्थात् यह अहं भाव को विगलित कर अहँ भाव को प्रकट करने का साधन है। निष्कर्ष लोगस्स के इस अंतिम पद्य की आराधना से साधक किसी परकीय शक्ति को नमन नहीं करता, उसका सहारा नहीं लेता वह स्वयं ही प्रमुख बनकर प्रभु की पूजा करता है। प्रत्येक आत्मा में अनंत-ज्ञान, अनंत-दर्शन, अनंत सुख, अनंत वीर्य (शक्ति)-यह अनंत चतुष्ट्य विद्यमान है। "चंदेसु...दिसंतु"। इस पद्य के ध्यान अथवा जप से उत्पन्न नाद की तरंगों से अंतरंग में प्रच्छन्न आत्मा की इस अमोघ शक्ति को जगाना होता है। उस स्वयं की शक्ति से स्वयं को अनभिज्ञ बनाये रखने का प्रमुख कारण है अहं का उदय। मदमत्त भक्त का चित्त सदा परकीय शक्ति की शरण को स्वीकारता है। मदों के अभाव में शुद्ध साधक/भक्त अपनी आत्मा से साक्षात्कार करता है। अहंकार का पुरस्कर्ता है-मोह। मोह का परिणाम है राग-द्वेष । राग-द्वेष को चिरंजीवी करते हैं-लोभ, माया, मान और क्रोध। इनके प्रवेश से भक्त का अन्तरंग जागतिक क्रिया-कलापों में सक्रिय हो जाता है। उसका आध्यात्मिक रूप प्रच्छन्न हो जाता है। विनय के प्रयोग से अहंकार का विसर्जन होता है। इस विनय का प्रयोक्ता होता है भक्त। लोगस्स-स्तव में विनय का माहात्म्य उल्लेखनीय है। अपने आपको अपने आप में ले जाने की विशेष प्रक्रिया का मूलाधार है-विनय। लोगस्स स्तव में साधक तीर्थंकरों, विहरमानों व अनंत सिद्धों के स्वरूप की स्तुति करता हुआ स्वयं की सिद्धि की कामना करता है। भक्ति की प्रक्रिया में विनय अथवा नमन की मुद्रा में शरीर के उत्तमांग मुखर हो जाते हैं जिनके द्वार से ऊर्जा का जागरण होता है और तब अहंकार का पुञ्ज निस्तेज हो जाता है। इस प्रयोग से मानसिक प्रसन्नता बनी रहती है। मानसिक प्रसन्नता धीरे-धीरे आनंद का रूप ले लेती है। आनंद का ही दूसरा नाम है परमात्मा अर्थात् आत्मा ही एक दिन परमात्मा बन जाता है। ज्योति-केन्द्र, दर्शन-केन्द्र, विशुद्धि-केन्द्र व ज्ञान केन्द्र पर लोगस्स के अंतिम पद्य का सविधि जप अथवा ध्यान करने से एकाग्रता बढ़ती है। एकाग्रता वृद्धि से चित्त ध्येय में स्थिर बनता है। चित्त के ध्येय में स्थिर होने से जागरूकता बढ़ती है। जागरूक मन संयम में प्रतिष्ठ होकर निर्जरा तथा संवर से जुड़ता है। यही लक्ष्य तक पहुँचने की प्रशस्त भूमिका है। . सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु / ६५
SR No.032419
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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